Thursday, February 28, 2019

इस तरह देवी सरस्वती माता का नाम पड़ा वीणापाणि |



प्रत्येक वर्ष माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी यानी बसंत पंचमी के दिन वाणी और विद्या की देवी सरस्वती की पूजा होती है। क्योंकि वेद और पुराणों में बताया गया है कि ज्ञान और वाणी की देवी मां सरस्वती इसी दिन प्रकट हुई थी।

इसलिए इस तिथि को सरस्वती जन्मोत्सव भी कहा जाता है। पुराणों में देवी सरस्वती के प्रकट होने की जो कथा है उसके अनुसार सृष्टि का निर्माण कार्य पूरा करने के बाद ब्रह्मा जी ने जब अपनी बनायी सृष्टि को देखा तो उन्हें लगा कि उनकी सृष्टि मृत शरीर की भांति शांत है। इसमें न तो कोई स्वर है और न वाणी।

अपनी उदासीन सृष्टि को देखकर ब्रह्मा जी निराश और दुःखी हो गये। ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के पास गये और अपनी उदासीन सृष्टि के विषय में बताया। ब्रह्मा जी की बातों को सुनकर भगवान विष्णु ने कहा कि आप देवी सरस्वती का आह्वान कीजिए। आपकी समस्या का समाधान देवी सरस्वती ही कर सकती हैं।

भगवान विष्णु के कथनानुसार ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती देवी का आह्वान किया। देवी सरस्वती हाथों में वीणा लेकर प्रकट हुई। ब्रह्मा जी ने उन्हें अपनी वीणा से सृष्टि में स्वर भरने का अनुरोध किया। देवी सरस्वती ने जैसे ही वीणा के तारों को छुआ उससे 'सा' शब्द फूट पड़ा। इसी से संगीत के प्रथम सुर का जन्म हुआ।

सा स्वर के कंपन से ब्रह्मा जी की मूक सृष्टि में ध्वनि का संचार होने लगा। हवाओं को, सागर को, पशु-पक्षियों एवं अन्य जीवों को वाणी मिल गयी। नदियों से कलकल की ध्वनि फूटने लगी। इससे ब्रह्मा जी अति प्रसन्न हुए उन्होंने सरस्वती को वाणी की देवी के नाम से सम्बोधित करते हुए वागेश्वरी नाम दिया। माता सरस्वती का एक नाम यह भी है। हाथों में वीणा होने के कारण मां सरस्वती वीणापाणि भी कहलायी।

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                                                                                                                                                                                                                 Source:https://bit.ly/2HjLxJq

Tuesday, February 26, 2019

जानिये भगवन गणेश का जन्म कैसे हुआ ।



हम सभी उस कथा को जानते हैं, कि कैसे गणेशजी हाथी के सिर वाले भगवान बने। जब पार्वती शिव के साथ उत्सव क्रीड़ा कर रहीं थीं, तब उन पर थोड़ा मैल लग गया। जब उन्हें इस बात की अनुभूति हुई, तब उन्होंने अपने शरीर से उस मैल को निकल दिया और उससे एक बालक बना दिया। फिर उन्होंने उस बालक को कहा कि जब तक वे स्नान कर रहीं हैं, वह वहीं पहरा दे।
जब शिवजी वापिस लौटे, तो उस बालक ने उन्हें पहचाना नहीं, और उनका रास्ता रोका । तब भगवान शिव ने उस बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया और अंदर चले गए।
यह देखकर पार्वती बहुत हैरान रह गयीं। उन्होंने शिवजी को समझाया कि वह बालक तो उनका पुत्र था, और उन्होंने भगवान शिव से विनती करी, कि वे किसी भी कीमत पर उसके प्राण बचाएँ।
तब भगवान शिव ने अपने सहायकों को आज्ञा दी कि वे जाएँ और कहीं से भी कोई ऐसा मस्तक ले कर आये जो उत्तर दिशा की ओर मुहँ करके सो रहा हो। तब शिवजी के सहायक एक हाथी का सिर लेकर आये, जिसे शिवजी ने उस बालक के धड़ से जोड़ दिया और इस तरह भगवान गणेश का जन्म हुआ

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                                                                                                                                                                                     Source:https://bit.ly/2IDvWtN

Monday, February 25, 2019

क्यों की जाती है शिव के लिंग रूप की पूजा?


शिव शंभु आदि और अंत के देवता है और इनका न कोई स्वरूप है और न ही आकार वे निराकार हैं. आदि और अंत न होने से लिंग को शिव का निराकार रूप माना जाता है, जबकि उनके साकार रूप में उन्हें भगवान शंकर मानकर पूजा जाता है.
सिर्फ भगवान शिव ही इस रूप में पूजे जाते हैं
केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं. लिंग रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं. इसलिए शिव मूर्ति और लिंग दोनों रूपों में पूजे जाते हैं. 'शिव' का अर्थ है– 'परम कल्याणकारी' और 'लिंग' का अर्थ है – ‘सृजन’. शिव के वास्तविक स्वरूप से अवगत होकर जाग्रत शिवलिंग का अर्थ होता है प्रमाण.
वेदों में मिलता है उल्लेख
वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है. यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है. मन, बुद्धि, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु. वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं. इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है.
पौराणिक कथा के अनुसार
जब समुद्र मंथन के समय सभी देवता अमृत के आकांक्षी थे लेकिन भगवान शिव के हिस्से में भयंकर हलाहल विष आया. उन्होंने बड़ी सहजता से सारे संसार को समाप्त करने में सक्षम उस विष को अपने कण्ठ में धारण किया तथा ‘नीलकण्ठ’ कहलाए. समुद्र मंथन के समय निकला विष ग्रहण करने के कारण भगवान शिव के शरीर का दाह बढ़ गया. उस दाह के शमन के लिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई, जो आज भी चली आ रही है.
श्री शिवमहापुराण के सृष्टिखंड अध्याय 12 श्लोक 82 से 86 में ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते है कि हर गृहस्थ को देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर पंचदेवों (श्री गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा, शंकर) की प्रतिमाओं में नित्य पूजन करना चाहिए क्योंकि शिव ही सबके मूल है, मूल (शिव) को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते है परन्तु सभी देवताओं को तृप्त करने पर भी प्रभु शिव की तृप्ति नहीं होती.
इस बात का प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड में मिलता है इस पुराण के अनुसार सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु ने एक बार, सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण-निराकार-अजन्मा ब्रह्म(शिव) से प्रार्थना कि ‘आप कैसे प्रसन्न होते है.’प्रभु शिव बोले, 'मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो. जब जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है.जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को श्राप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब श्री विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि क्रियाएं बताई.
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Saturday, February 23, 2019

आखिर कब हुआ था श्रीराम का जन्म?



मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अवतारी पुरुष जरूर थे लेकिन उन्होंने सामान्य बच्चे की तरह माता के गर्भ से जन्म लिया।
पुराणों में इस बात को लेकर काफी मतभेद है कि श्रीराम का जन्म आखिर कब हुआ था। प्रचलित कथा के अनुसार श्रीराम का जन्म चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को श्री राम का जन्म हुआ था। इस दिन देश भर में राम नवमी मनाई जाती है जो श्रीराम के जन्म की द्योतक मानी जाती है।
सवाल ये उठता है कि श्रीराम के युग के बाद इतनी सभ्यताएं आई और गई कि यह तय करना असंभव प्रतीत होता है कि श्रीराम किस काल, वर्ष और खंड में जन्में। उनके जन्म की तारीख और स्थान पर भी कई बार बहस होती है लेकिन अब तक भी बात को प्रमाणित नहीं किया जा सका है।
आइए अलग अलग काल के पुराणों और प्रचलित मान्यताओं में लिखित श्रीराम के जन्म की तारीख जानते हैं।
क्या कहती है महर्षि वाल्मीकि की रामायण

महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के बाल काण्ड में श्री राम के जन्म का उल्लेख इस तरह किया गया है। जन्म सर्ग 18वें श्लोक 18-8-10 में महर्षि वाल्मीक जी ने उल्लेख किया है कि श्री राम जी का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अभिजीत महूर्त में हुआ। अचंभे की बात ये है कि आधुनिक युग में कंप्यूटर द्वारा गणना करने पर यह 21 फरवरी, 5115 ईस्वी पूर्व निकलता है।
तुलसीदास की रामचरित मानस के अनुसार

मानस के बाल काण्ड के 190 वें दोहे के बाद पहली चौपाई में तुलसीदास ने भी इसी तिथि और ग्रहनक्षत्रों का जिक्र किया है। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में राम के पूरे जीवन की हर अवस्था का जिक्र करते हुए कहा है कि सोलहवें वर्ष में वो विश्वमित्र के साथ तपोवन गए और युद्ध की शिक्षा ली।

आई वेदा ने की वाल्मीकि रामायण की पुष्टि

वाल्मीकि रामायण की पुष्टि दिल्ली में स्थित एक संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदा यानी आई सर्वे ने भी की है। वेदा ने खगौलीय स्थितियों की गणना के आधार पर ये थ्योरी बनाई है कि वाल्मीकि ने तारों की गणना के आधार पर राम जन्म की स्थिति की जानकारी दी है।
वेदा द्वारा कराए गए इस शोध में मुख्य भूमिका अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र और सरोज बाला ने निभाई है। सरोज बाला आईवेदा की अध्यक्ष भी हैं। इनके अनुसार 10 जनवरी 5114 को भगवान राम का जन्म हुआ था
वाल्मीकि लिखते हैं कि चैत्र मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथी को पुनर्वसु नक्षत्र और कर्क लग्न में कौशल्यादेवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त सर्वलोकवन्दित श्री राम को जन्म दिया। वाल्मीकि कहते हैं कि जिस समय राम का जन्म हुआ उस समय पांच ग्रह अपनी उच्चतम स्थिति में थे।

क्या दोपहर को हुआ राम का जन्म

यूनीक एग्जीबिशन ऑन कल्चरल कॉन्टिन्यूटी फ्रॉम ऋग्वेद टू रोबॉटिक्स नाम की इस एग्जीबिशन में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार भगवान राम का जन्म 10 जनवरी, 5114 ईसापूर्व सुबह बारह बजकर पांच मिनट पर हुआ (12:05 ए.एम.) पर हुआ था।

कंप्यूटर ने खोज निकाली नई तिथि

वाल्मीकि रामायण द्वारा बताए गए ग्रह नक्षत्रों का जब प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार आकलन किया गया तो राम जन्म की तिथि 4 दिसंबर ईसा पूर्व यानी आज से 9349 साल पहले हुआ।

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भगवान हनुमान की कहानी | (Hanuman Story in Hindi)


हनुमान के जन्म की कहानी  Hanuman Ji Birth Story in Hindi

राम को अपना देवता मानते हुए भगवान शिव ने घोषित किया और शिव ने उनकी सेवा करने के लिए पृथ्वी पर अवतार की इच्छा जाहिर की। जब सती ने इसका विरोध प्रदर्शन किया और कहा कि वह उन्हें स्मरण करेंगी तो शिव ने केवल खुद का एक हिस्सा पृथ्वी पर भेजने का वादा किया और इसलिए कैलाश पर उनके साथ रहे।
वे सोच रहे थे कि क्या करना चाहिए, इस समस्या पर चर्चा करने लगे; यदि वह मनुष्य के आकार को लेते है, तो वह सेवा के धर्म का उल्लंघन करेगें, क्योंकि नौकर मालिक से बड़ा नहीं होना चाहिए। शिव ने आखिरकार एक बंदर का रूप धारण करने का निर्णय लिया, क्योंकि यह विनम्र होता है, इसकी जरूरतें और जीवनशैली सरल होती है: कोई आश्रय नहीं, कोई पका हुआ भोजन नहीं, और जाति और जीवन स्तर के नियमों का कोई पालन नहीं होती है। इससे सेवा के लिए अधिकतम दायरे की अनुमति होगी।

भगवान श्री राम ने शरीर त्यागने के लिए हनुमान का मन विचलित किया Lord Rama’s death and Hanuman Story in Hindi

मृत्यु के देवता यम, हनुमान से डरते थे, हनुमान जी राम के महल के दरवाजे की रक्षा करते थे और स्पष्ट था कि कोई भी राम को उनसे दूर नहीं ले जा सकता है। यम को प्रवेश करवाने के लिए हनुमान का मन भटकाना ज़रूरी था।
तो राम ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श में एक दरार में गिरा दिया और अनुरोध किया कि हनुमान इसे लाने के लिए जाएँ, बाद में, हनुमान को एहसास हो गया कि नाग-लोक में प्रवेश और अंगूठी के साथ यह समय कोई दुर्घटना नहीं थी। यह राम के यह कहने का तरीका था कि वह आने वाली मृत्यु को नहीं रोक सकते थे। राम मर जाएगे, दुनिया मर जाएगी।
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Friday, February 22, 2019

लक्ष्मी जी की कथा |


एक बूढ़ा ब्राह्मण था वह रोज पीपल को जल से सींचता था. पीपल में से रोज एक लड़की निकलती और कहती पिताजी मैं आपके साथ जाऊँगी. यह सुनते-सुनते बूढ़ा दिन ब दिन कमजोर होने लगा तो बुढ़िया ने पूछा की क्या बात है? बूढ़ा बोला कि पीपल से एल लड़की निकलती है और कहती है कि वह भी मेरे साथ चलेगी. बुढ़िया बोली की कल ले आना उस लड़की को जहाँ छ: लड़कियाँ पहले से ही हमारे घर में है वहाँ सातवीं लड़की और सही.
अगले दिन बूढ़ा उस लड़की को घर ले आया. घर लाने के बाद बूढ़ा आटा माँगने गया तो उसे पहले दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा आटा मिला था. जब बुढ़िया वह आटा छानने लगी तो लड़की ने कहा कि लाओ माँ, मैं छान देती हूँ. जब वह आटा छानने बैठी तो परात भर गई. उसके बाद माँ खाना बनाने जाने लगी तो लड़की बोली की आज रसोई में मैं जाऊँगी तो बुढ़िया बोली कि ना, तेरे हाथ जल जाएँगे लेकिन लड़की नहीं मानी और वह रसोई में खाना बनाने गई तो उसने तरह-तरह के छत्तीसों व्यंजन बना डाले और आज सभी ने भरपेट खाना खाया. इससे पहले वह आधा पेट भूखा ही रहते थे.
रात हुई तो बुढ़िया का भाई आया और कहने लगा कि दीदी मैं तो खाना खाऊँगा. बुढ़िया परेशान हो गई कि अब खाना कहाँ से लाएगी. लड़की ने पूछा की माँ क्या बात है? उसने कहा कि तेरा मामा आया है और रोटी खाएगा लेकिन रोटी तो सबने खा ली है अब उसके लिए कहाँ से लाऊँगी. लड़की बोली कि मैं बना दूँगी और वह रसोई में गई और मामा के लिए छत्तीसों व्यंजन बना दिए. मामा ने भरपेट खाया और कहा भी कि ऎसा खाना इससे पहले उसने कभी नहीं खाया है. बुढ़िया ने कहा कि भाई तेरी पावनी भाँजी है उसी ने बनाया है.
शाम हुई तो लड़की बोली कि माँ चौका लगा के चौके का दीया जला देना, कोठे में मैं सोऊँगी. बुढ़िया बोली कि ना बेटी तू डर जाएगी लेकिन वह बोली कि ना मैं ना डरुँगी, मैं अंदर कोठे में ही सोऊँगी. चह कोठे में ही जाकर सो गई. आधी रात को लड़की उठी और चारों ओर आँख मारी तो धन ही धन हो गया. वह बाहर जाने लगी तो एक बूढ़ा ब्राह्मण सो रहा था. उसने देखा तो कहा कि बेटी तू कहाँ चली? लड़की बोली कि मैं तो दरिद्रता दूर करने आई थी. अगर तुम्हें दूर करवानी है तो करवा लो. उसने बूढे के घर में भी आँख से देखा तो चारों ओर धन ही धन हो गया.
सुबह सवेरे सब उठे तो लड़की को ना पाकर उसे ढूंढने लगे कि पावनी बेटी कहां चली गई. बूढ़ा ब्राह्मण बोला कि वह तो लक्ष्मी माता थी जो तुम्हारे साथ मेरी दरिद्रता भी दूर कर गई. हे लक्ष्मी माता ! जैसे आपने उनकी दरिद्रता दूर की वैसे ही सबकी करना.
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Thursday, February 21, 2019

भगवन विष्णु - महापुराण । (Lord Vishnu story)



सच्चे भक्त बालक के लिए विष्णु ने धरती के कर दिए थे दो टुकड़े ! आज का विशेष – भक्तों का भगवान !!


भगवान अपने भक्त का ध्यान हमेशा रखता है.
अगर भक्त सभी मुश्किलों को झेलते हुए अपने ईश्वर का ध्यान करता रहता है तो भगवान भी ऐसे भक्त के लिए कुछ भी कर देते हैं.
हमारे इतिहास में वैसे इस तरह की कई कहानियां हैं लेकिन संत महिदास जी की कथा को बहुत ही कम लोग जानते हैं. एक बच्चा जो विष्णु भगवान को बहुत मानता था और इनकी आराधना करता था. पिता इस बालक को निकम्मा समझते थे और समाज भी बालक को इज्जत नहीं देता था. एक बार बालक परेशान हुआ तो कहते हैं कि विष्णु भगवान धरती फाड़कर उसमें से प्रकट हुए थे.
तो आइये आज इसी बालक महिदास की कहानी पढ़ते हैं. पेश है आज का विशेष- भक्तों का भगवान
कहानी है कि हारीत ऋषि के वंश में माणडूकि नाम के विधान थे. कहते हैं कि इनकी कई पत्नियाँ थीं. इसीलिए शायद शास्त्रों में यह ऋषि काफी विवादों से घिरे हुए रहे हैं.
अनेक पत्नियों में से एक पत्नी का नाम इतरा था. इन्हीं से जन्म लेने वाले पुत्र का नाम महिदास था.
लेकिन यहाँ पर इस ऋषि के नाम पर कुछ विवाद हैं. पहला विवाद यह है कि हारीत ऋषि खुद तो हारित थे तो इनका बच्चा कैसे ‘मही’-‘दास’ बोला जाता है. क्योकि दास को छोटी जाति का सूचक है.
तो कुछ विद्वान कहते हैं कि इनकी कई पत्नियों में से यह पत्नी शायद छोटी जात से थी इसलिए बच्चा महिदास ही रहा.
बाद में जब बच्चे को पिता का नाम नहीं मिला तो इसने माता का नाम खुद के साथ जोड़ते हुए, खुद को महिदास हारीत की बजाय महिदास ऐतरेय बोला.
अब अगर मुख्य मुद्दे की बात करें तो स्कन्दपुराण बताता है कि महिदास बचपन से ही विष्णु के मन्त्र का जाप करते थे.  एक यही कारण था कि इनके पिता माणडूकि इनको बेकार समझते थे. कुछ समय बाद पिता ने रोज ही इस बालक को अपमानित करना शुरू कर दिया था.
इस बात को देखकर महिदास की माँ बहुत निराश रहने लगी थी. वह खिन्न थी क्योकि पिता इसके बच्चे का अपमान करता था और दूसरी पत्नियों के बच्चों को गले से लगाकर रखता था.
एक बार यज्ञ के दौरान पिता ने एक बालक को अपनी गोद में बैठा लिया और हरिदास को जमीन पर ही रहने दिया. इस बात से हरिदास और उसकी को काफी चोट पहुंची और माँ ने धरती फट जाए ऐसा बोला.
तब कहते हैं कि तुरंत धरती फटती है और विष्णु भगवान सोने का सिंहासन लिए प्रकट होते हैं. यह सिंहासन हरिदास के लिए था. एक भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर खुद भगवान प्रकट हुए थे.
बाद में इसी बालक ने ब्राह्मणग्रन्थ का निर्माण कर इतिहास लिखा है. यह कथा दर्शाती है कि भगवान बिना बोले भी भक्त की परेशानी समझते हैं और वक़्त आने पर उसका हल भी निकाल देते हैं.
(प्रस्तुत कहानी की सत्यता स्कन्दपुराण और भारत गाथा नामक पुस्तक से जाँची जा सकती हैं. कहानी के कई प्रकार के अन्य रूप भी हैं किन्तु कहानी का अंत हर जगह यही है.)
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Wednesday, February 20, 2019

श्री कृष्ण जन्म कथा | (Shri Krishna's birth story)


द्वापर युग में पृथ्वी पर राक्षसो के अत्याचार बढने लगे पृथ्वी गाय का रूप धारण कर अपनी कथा सुनाने के लिए तथा उद्धार  के लिए ब्रह्मा जी के पास गई।  पृथ्वी पर पाप कर्म बहुत बढ़ गए यह देखकर   सभी देवता भी बहुत चिंतित थे । ब्रह्मा जी  सब देवताओ को साथ लेकर पृथ्वी को  भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर ले गए। उस समय भगवान विष्णु अन्नत शैया पर शयन कर रहे थे। स्तुति करने पर भगवान की निद्रा भंग हो गई भगवान ने ब्रह्मा जी एवं सब देवताओ को देखकर उनके आने का कारण पूछा तो पृथ्वी बोली-भगवान मैं पाप के बोझ से दबी जा रही हूँ। मेरा उद्धार किजिए। यह सुनकर भगवान  विष्णु उन्हें आश्वस्त करते हुए बोले - “चिंता न करें, मैं नर-अवतार लेकर पृथ्वी पर आऊंगा और इसे पापों से मुक्ति प्रदान करूंगा। मेरे अवतार लेने से पहले कश्यप मुनि मथुरा के यदुकुल में जन्म लेकर वसुदेव नाम से प्रसिद्ध होंगे। मैं ब्रज मण्डल में वासुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से ‘कृष्ण’ के रूप में   जन्म लूँगा और उनकी दूसरी पत्नी के गर्भ से मेरी सवारी शेषनाग बलराम के रूप में उत्पन्न होंगे । तुम सब देवतागण ब्रज भूमि में जाकर यादव वंश में अपना शरीर धारण कर लो। कुरुक्षेत्र के मैदान में मैं पापी क्षत्रियों का संहार कर पृथ्वी को पापों से भारमुक्त करूंगा।” इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गए । इसके पश्चात् देवता ब्रज मण्डल में आकर यदुकुल में नन्द यशोदा तथा गोप गोपियो के रूप में पैदा हुए । 

वह समय भी जल्द ही आ गया। द्वापर युग के अन्त में मथुरा में ययाति वंश के राजा उग्रसेन राज्य करता था।  राजा उग्रसेन के पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र कंस था। देवकी का जन्म उन्हीं के यहां हुआ। इस तरह देवकी का जन्म कंस की चचेरी बहन के रूप में हुआ। कंस ने उग्रसेन को बलपूर्वक सिंहासन से उतारकर जेल में डाल दिया और स्वंय राजा बन गया  इधर कश्यप ऋषि का जन्म राजा शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में हुआ। कालांतर में देवकी का विवाह यादव कुल में वसुदेव के साथ संपन्न हुआ।

कंस देवकी से बहुत स्नेह करता था। पर जब कंस देवकी को विदा करने के लिए रथ के साथ जा रहा था तो आकाशवाणी हुई कि ”हे कंस! जिस देवकी को तु बडे प्रेम से विदा करने कर रहा है उसका आँठवा पुत्र तेरा संहार करेगा। आकाशवाणी की बात सुनकर कंस क्रोध से भरकर देवकी को मारने को उद्धत  हो गया। उसने सोचा- ने देवकी होगी न उसका पुत्र होगा । 

इस घटना से चारों तरफ हाहाकार मच गया। अनेक योद्धा वसुदेव का साथ देने के लिए तैयार हो गए। पर वसुदेव युद्ध नहीं चाहते थे। वासुदेव जी ने कंस को समझाया कि तुम्हे देवकी से तो कोई भय नही है देवकी की आठवी सन्तान में तुम्हे सौप दूँगा। तुम्हारे समझ मे जो आये उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना उनके समझाने पर कंस का गुस्सा शांत हो गया । वसुदेव झूठ नहीं बोलते थे। कंस ने वासुदेव जी की बात स्वीकार कर ली  पर उसने वसुदेव और देवकी को कारागार में बन्द कर दिया और सख्त पहरा लगवा दिया।

तत्काल नारदजी वहाँ पहुँचे और कंस से बोले कि यह कैसे पता चला कि आठवाँ गर्भ कौन सा होगा गिनती प्रथम से या अन्तिम गर्भ से शुरू होगा कंस ने नादरजी के परामर्श पर देवकी के गर्भ से उत्पन्न होने वाले समस्त बालको को मारने का निश्चय कर लिया । जैसे ही देवकी ने प्रथम पुत्र को जन्म दिया वसुदेव ने उसे कंस के हवाले कर दिया। कंस ने उसे चट्टान पर पटक कर मार डाला। इस प्रकार एक-एक करके कंस ने देवकी के सात बालको को निर्दयता पूर्वक मार डाला । भाद्र पद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उनके जन्म लेते ही जेल ही कोठरी में प्रकाश फैल गया। वासुदेव देवकी के सामने शंख, चक्र, गदा, एव पदमधारी चतुर्भुज भगवान ने अपना रूप प्रकट कर कहा,”अब मै बालक का रूप धारण करता हूँ तुम मुझे तत्काल गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा दो और उनकी अभी-अभी जन्मी कन्या को लाकर कंस को सौप दो । तत्काल वासुदेव जी की हथकडियाँ खुल गई । दरवाजे अपने आप खुल गये पहरेदार सो गये वासुदेव कृष्ण को सूप में रखकर गोकुल को चल दिए रास्ते में यमुना श्रीकृष्ण के चरणो को स्पर्श करने के लिए बढने लगी भगवान ने अपने पैर लटका दिए चरण छूने के बाद यमुना घट गई वासुदेव यमुना पार कर गोकुल में नन्द के यहाँ गये बालक कृष्ण को यशोदाजी की बगल मे सुंलाकर कन्या को लेकर वापस कंस के कारागार में आ गए। जेल के दरवाजे पूर्ववत् बन्द हो गये। वासुदेव जी के हाथो में हथकडियाँ पड गई, पहरेदारजाग गये कन्या के रोने पर कंस को खबर दी गई। कंस ने कारागार मे जाकर कन्या को लेकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा परन्तु वह कंस के हाथो से छूटकर आकाश में उड गई और देवी का रूप धारण का बोली ,”हे कंस! मुझे मारने से क्या लाभ? तेरा शत्रु तो  गोकुल में पहुच चुका है“। यह दृश्य देखकर कंस हतप्रभ और व्याकुल हो गया । कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए अनेक दैत्य भेजे श्रीकृष्ण ने अपनी आलौलिक माया से सारे दैत्यो को मार डाला। बडे होने पर कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाया । श्रीकृष्ण के जन्म की इस पुण्य तिथी को तभी से सारे देश में बडे हर्षोल्लास से जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है । 

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Tuesday, February 19, 2019

बुद्धि के देव श्री गणेश जी ने किया था 'कावेरी अम्मा' का नामकरण


बुद्धि के देवता श्री गणेश जी से जुड़ी हर कथा, प्रेरक सीख देती है। ऐसी ही कथा है श्री गणेश और कावेरी नदी की।

हम जानते हैं गंगा नदी को भारत की पवित्र नदियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है। हमारी वैदिक परंपरा और शास्त्रों में गंगाजल को अमृत की तरह माना गया है।

इसी तरह कावेरी भी भारत की पवित्र नदियों में एक है। यह 'दक्षिण की गंगा' नदी भी कहलाती है। आलम यह है कि दक्षिण भारत में कावेरी नदी को 'कावेरी अम्मा' के नाम से भी पुकारते हैं। कावेरी नदी का 'कावेरी अम्मा' नाम भगवान गणेश ने रखा था।

हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार धरती पर कावेरी नदी की उत्पत्ति गणेश जी के कारण हुई। कहते हैं एक बार ऋषि अगस्त्य ब्रह्माजी के पास दक्षिण भारत में जल की समस्या को लेकर पहुंचे।

ब्रह्माजी ऋषि की बात सुनकर बोले, 'अगस्त्य आपको इस समस्या के निराकरण के लिए भगवान शिव के पास जाना चाहिए।'

ऋषि अगस्त्य को उम्मीद थी कि भगवान शिव उनकी इस समस्या को सुनकर जरूर मदद करेंगे। ब्रह्माजी ने ऋषि अगस्त्य को जाते समय एक कमंडल (तांबे, पीतल, कांसे का पात्र) दिया, और कहा यह कमंडल आप भगवान शिव को दे देना। देवाधिदेव कैलाश पर्वत पर रहते हैं।

अगस्त्य भगवान शिव की आराधना करते हुए उनके धाम की ओर चल निकले। वह कैलाश पर पहुंचे तो देवाधिदेव ने उनसे पूछा, 'हे ऋषिवर आप क्या चाहते हैं। तब ऋषि अगस्त्य ने अपनी समस्या को सुनाया। तब भगवान शिव ने ऋषि को अपनी जटा में से गंगा जल की कुछ बूंद दीं। और वह कमंडल भी ऋषि को दिया जिसमें उन्होंने गंगाजल की बूंद रख लीं।'

ऋषि हैरान थे कि इतना कम जल कैसे लोगों की प्यास और सूखे से बचा पाएगा। तब शिव ने कहा, 'यदि आप मुझ पर विश्वास रखते हैं तो यह संभव है कि आपकी इस समस्या का निराकरण जल्द हो जाएगा। उन्होंने ऋषि से कहा गंगा जल की इन तीन बूंद को आप सूखी भूमि में विसर्जित कर देना। आपकी समस्याएं दूर हो जाएंगी।'

तब ऋषि अगस्त्य ने दक्षिण भारत की यात्रा पर लौट गए। ऋषि असमंजस में थे। वह तय नहीं कर पा रहे थे कि गंगाजल की कमंडल में रखी बूंदें कहां विसर्जित करें। तभी उन्हें वहां एक युवा बालक मिला।

ऋषि अगस्त्य लंबी यात्रा से बहुत थक चुके थे। इसलिए उस कमंडल में रखीं गंगाजल की बूंदों की सुरक्षा के लिए उन्होने उस राहगीर बालक से प्रार्थना की। दरअसल वह राहगीर बालक और कोई नहीं भगवान गणेश थे।

उन्होंने कहा, 'में आपकी मदद के लिए ही आया हूं। वैसे यह बिल्कुल सही जगह है। जहां आप अपने कमंडल से जल प्रवाहित कर सकते हैं। तभी गणेश जी ने अपनी माया से एक पक्षी बनाया। पक्षी आया और उसने जमीन पर ही रखे कमंडल को गिरा दिया। ऐसे में जल बहुत तेजी से प्रवाहित होने लगा। और धीरे-धीरे विशाल नदी का रूप धारण कर लिया।

तब राहगीर बालक अपने मूल रूप यानी गणेश जी के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने ऋषि अगस्त्य से कहा कि आज से इस नदी का नाम कावेरी नदी होगा। यह दक्षिण की गंगा भी कहलाएगी।

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Monday, February 18, 2019

शिवलिंग पर कभी भी नहीं चढ़ानी चाहिए ये 7 चीजें.


हिन्दू धर्म में सप्ताह का हर एक दिन किसी न किसी देवी- देवताओं के लिए समर्पित होता है। सोमवार का दिन भगवान शिव की पूजा में विशेष महत्व रहता है। शिवपुराण के अनुसार इस दिन भगवान शिव की आराधना करने से धन संबंधी और कुंडली दोष के निवारण होता है। शिवजी को खुश करने के लिए भक्त शिवलिंग पर कई चीजें अर्पित करते हैं, लेकिन कई बार भूलवश ऐसी चीजें शिवलिंग पर चढ़ाने लगते है जिसे शास्त्रों में वर्जित माना जाता है।

1. भगवान शिव की पूजा में शंख का इस्तेमाल वर्जित माना जाता है। दरअसल भगवान श‌िव ने शंखचूड़ नाम के सुर का वध क‌िया था, जो भगवान व‌िष्‍णु का भक्त था शंख को उसी असुर का प्रतीक माना जाता है। इसल‌िए व‌िष्णु भगवान की पूजा शंख से होती है श‌िवजी की नहीं।

2. तुलसी को हिन्दू धर्म में विशेष महत्व होता है और सभी शुभ कार्यों में इसका प्रयोग होता है, लेकिन तुलसी को भगवान शिव पर चढ़ाना मना है। भूलवश लोग भोलेनाथ की पूजा में तुलसी का इस्तेमाल करते हैं जिस वजह से उनकी पूजा पूर्ण नहीं होती।

3.तिल को शिवलिंग में चढ़ाना वर्जित माना जाता है क्योंकि यह भगवान व‌िष्‍णु के मैल से उत्पन्न हुआ माना जाता है इसल‌िए इसे भगवान श‌िव को नहीं अर्प‌ित क‌िया जाना चाह‌िए।


4.भगवान श‌िव को अक्षत यानी साबूत चावल अर्प‌ित क‌िए जाने के बारे में शास्‍त्रों में ल‌िखा है। टूटा हुआ चावल अपूर्ण और अशुद्ध होता है इसल‌िए यह श‌िव जी को नही चढ़ता।

5.कुमकुम सौभाग्य का प्रतीक होता है जबक‌ि भगवान श‌िव वैरागी हैं इसल‌िए श‌िव जी को कुमकुम नहीं चढ़ना चाहिए।

6. हल्दी का संबंध भगवान व‌िष्‍णु और सौभाग्य से है इसल‌िए यह भगवान श‌िव को नहीं चढ़ता है।

7. हालांकि शिवलिंग पर नारियल अर्पित किया जाता है लेकिन कभी भी शिवलिंग पर नारियल के पानी से अभिषेक नहीं करना चाहिए। नारियल देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है ज‌िनका संबंध भगवान व‌िष्‍णु से है इसल‌िए श‌िव जी को नहीं चढ़ता।

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Sunday, February 17, 2019

भगवान सूर्य की पौराणिक कथा और महिमा.



कैसे हुई सूर्य देव की उत्पत्ति ?

सूर्य और चंद्र इस पृथ्वी के सबसे साक्षात देवता हैं जो हमें प्रत्यक्ष उनके सर्वोच्च दिव्य स्वरूप में दिखाई देते हैं। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है। वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। वेदों की ऋचाओं में अनेक स्थानों पर  सूर्य देव की स्तुति की गई है। पुराणों में सूर्य की उत्पत्ति,प्रभाव,स्तुति, मन्त्र इत्यादि विस्तार से मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों में सूर्य को राजा का पद प्राप्त है।
कैसे हुई सूर्य देव की उत्पत्ति

मार्कंडेय पुराण के अनुसार  पहले यह सम्पूर्ण जगत प्रकाश रहित था। उस समय कमलयोनि ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उनके मुख से प्रथम शब्द ॐ निकला जो सूर्य का तेज रुपी सूक्ष्म रूप था। तत्पश्चात ब्रह्मा जी के चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए जो ॐ के तेज में एकाकार हो गए।

यह वैदिक तेज ही आदित्य है जो विश्व का अविनाशी कारण है। ये वेद स्वरूप सूर्य ही सृष्टि की उत्पत्ति,पालन व संहार के  कारण हैं। ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर सूर्य ने अपने महातेज को समेट कर स्वल्प तेज को ही धारण किया।

सृष्टि रचना के समय ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि हुए जिनके पुत्र ऋषि कश्यप का विवाह अदिति से हुआ। अदिति ने घोर तप द्वारा भगवान् सूर्य को प्रसन्न किया जिन्होंने उसकी इच्छा पूर्ति के लिए सुषुम्ना नाम की किरण से उसके गर्भ में प्रवेश किया। गर्भावस्था में भी अदिति चान्द्रायण जैसे कठिन व्रतों का पालन करती थी। ऋषि राज कश्यप ने क्रोधित हो कर अदिति से कहा-'तुम इस तरह उपवास रख कर गर्भस्थ शिशु को क्यों मरना चाहती हो”> > यह सुन कर देवी अदिति ने गर्भ के बालक को उदर से बाहर कर दिया जो अपने अत्यंत दिव्य तेज से प्रज्वल्लित हो रहा था। भगवान् सूर्य शिशु रूप में उस गर्भ से प्रगट हुए। अदिति को मारिचम- अन्डम कहा जाने के कारण यह बालक मार्तंड नाम से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मपुराण में अदिति के गर्भ से जन्मे सूर्य के अंश को विवस्वान कहा गया है।

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Saturday, February 16, 2019

माँ दुर्गा के 9 रूप | Maa Durga Stories in Hindi

माँ दुर्गा के 9 रूप | Maa Durga Stories in Hindi 

1. शैलपुत्री Shailaputri
शैलपुत्री देवी दुर्गा का प्रथम रूप है। वह पर्वतों के राजा – हिमालय की पुत्री हैं। राजा हिमालय और उनकी पत्नी मेनाका ने कई तपस्या की जिसके फल स्वरुप माता दुर्गा उनकी पुत्री के रूप में पृथ्वी पर उतरी। तभी उनका नाम शैलपुत्री रखा गया यानी (शैल = पर्वत और पुत्री = बेटी)। माता शैलपुत्री का वाहन है बैल तथा उनके दायें हाँथ में होता है त्रिशूल और बाएं हाँथ में होता है कमल का फूल।

2. चन्द्रघंटा Chandraganta
यह माता दुर्गा का तीसरा रूप है। चंद्र यानी की चंद्र की रोशनी। यह परम शांति प्रदान करने वाला माँ का रूप है। मा की आराधना करने से सुख शांति मिलता है। वह तेज़ स्वर्ण के समान होता है और उनका वाहन सिंह होता है। उनके दस हाँथ हैं और कई प्रकार के अस्त्र -शस्त्र जैसे कडग, बांड, त्रिशूल, पद्म फूल उनके हांथों में होते हैं।


3. कुष्मांडा Kushmanda
कुष्मांडा माता दुर्गा का चौथा रूप है। जब पृथ्वी पर कुछ नहीं था और हर जगह अंधकार ही अंधकार था तब माता कुष्मांडा ने सृष्टि को जन्म दिया। उस समय माता सूर्य लोक में रहती थी। ऊर्जा का सृजन भी उन्ही ने सृष्टि में किया। माता कुष्मांडा के आठ हाँथ होते हैं इसलिए उन्हें अष्टभुजा देवी के नाम से भी जाना जाता है। उनका वाहन सिंह है और माता के हांथों मैं कमंडल, चक्र, कमल का फूल, अमृत मटका, और जप माला होते हैं।

4. स्कंदमाता Skandamata
स्कंदमाता माता दुर्गा का पांचवा रूप है। माँ दुर्गा ने देवताओं को सही मढ़ और आशीर्वाद देने के लिए भगवान् शिव से विवाह किया। असुरों और देवताओं के युद्ध होने के दौरान देवताओं को अपना एक मार्ग दर्शक नेता की जरूरत थी। शिव पारवती जी के पुत्र कार्तिक जिन्हें स्कंद भी कहा जाता है देवताओं के नेता बने। कार्तिक/स्कंदा को माता पारवती माता अपने गोद में बैठा के रखती हैं अपने वाहन सिंह पर बैठे हुए इसलिए उन्हें स्कंदमाता के नाम से पूजा जाता है।उनके 4 भुजाएं हैं, ऊपर के हाथ में माता कमल का फूल पकड़ी रहती है और नीचे के एक हाथ से माँ वरदान देती हैं और दुसरे से कार्तिक को पकड़ी रखती है।

6. कात्यायनी Katyayani
माँ कात्यायनी, दुर्गा माता के छटवां रूप हैं। महर्षि कात्यायना एक महान ज्ञानी थे जो अपने आश्रम में कठोर तपस्या कर रहे थे ताकि महिषासुर का अंत हो सके। एक दिन भगवान ब्रह्मा,विष्णु, और महेश्वर एक साथ उनके समक्ष प्रकट हुए। तीनो त्रिमूर्ति ने मिलकर अपनी शक्ति से माता दुर्गा को प्रकट किया। यह आश्विन महीने के 14वें दिन पूर्ण रात्रि के समय हुआ।

माता कात्यायनी को शुद्धता की देवी माना जाता है। माता कात्यायनी के चार हाथ हैं, उनके उपरी दाहिने हाथ में वह मुद्रा प्रदर्शित करती हैं जो डर से मुक्ति देता है, और उनके नीचले दाहिने हाथ में वह आशीर्वाद मुद्रा, उपरी बाएं हाथ में वह तलवार और नीचले बाएं में कमल का फूल रखती है। उनकी पूजा आराधना करने से धन-धन्य और मुक्ति मिलती है।

7. कालरात्रि Kalaraatri
माँ कालरात्रि, दुर्गा का सातवां रूप हैं। उनका नाम काल रात्रि इसलिए है क्योंकि वह काल का भी विनाश हैं। वह सब कुछ विनाश कर सकती हैं। कालरात्रि का अर्थ है अन्धकार की रात। उनका रैंड काला होता है उनके बाद बिखरे और उड़ते हुए होते हैं। उनका शरीर अग्नि के सामान तेज़ होता है।

8. महागौरी Maha Gauri
माँ दुर्गा का आठवां रूप है महागौरी। देवी पारवती का रंग सावला था और इसी कारन महादेव शिवजी उन्हें कालिके के नाम से पुकारा करते थे। बाद में माता पार्वती ने तपस्या किया जिसके कारन शिवजी प्रसन्न हुए और उन्होंने गंगा के पानीको माता पारवती के ऊपर डाल कर उन्हें गोरा रंग दिया। तब से माता पारवती को महागौरी के नाम से पूजा जाने लगा। उनका वाहन बैल है और उनके उपरी दाहिने हाथ से माँ आशीर्वाद वरदान देती है, और निचले दायिने हाथ में त्रिशूल रखती है। उपरी बाएं हाथ में उनके डमरू होता है और निचले हाथ से वह वरदान और अशोर्वाद देती हैं।


9. सिद्धिदात्री Siddhidaatri
माता दुर्गा के नौवे रूप का नाम सिद्धिदात्री है। उनका ना ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें सिद्धि प्रदान करने की माता कहा जाता है। माता सिद्धिदात्री के अनुकम्पा सेही शिवजी को अर्धानारिश्वार का रूप मिला। उनका वाहन सिंह है और उनका आसन है कमल का फूल। उनके उपरी दायिने हाथ में माता एक गदा और निचले दायिने हाथ में चक्रम रखती है। माता अपने उपरी बाएं हाथ में एक कमल का फूल और निचले बाएं हाथ में एक शंख रखती हैं। माता सिद्धिदात्री अपने भक्तों की सभी मनोस्कम्नाओं की सिद्धि देती हैं।

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Thursday, February 14, 2019

Shri Vishnu Puran | श्री विष्णु पुराण ।


श्री विष्णु-पुराण


प्राचीन काल में महर्षि मैत्रेय ने श्री पाराशर मुनि के आश्रम में जाकर उन्हें प्रणाम किया फिर स्वस्थ चित्त से सत्संग प्रारंभ हुआ। मैत्रेय ने कहा, हे महात्मन् ! मेरे मन में कुछ प्रश्न उठ रहे हैं उन्हीं के उत्तर की अकांक्षा से मैं आपके दर्शन करने चला आया। आप अपने श्री मुख से अमृत वर्षा करके मुझे कृतार्थ करने की कृपा करें। इस संसार की उत्पत्ति कैसे हुई। पहले यह किसमें लीन था। प्रलय काल में किसमें लीन होगा। पंच महाभूत, भूमि, वन, पर्वत, देव, मानव तथा मन्वन्तर के विषयों पर आप प्रकाश डाल कर मेरी जिज्ञासा शान्त कीजिये।

तब प्रसन्न होकर महर्षि पाराशर बोले हे, महात्मन् ! यह प्रसंग मेरे पितामह वशिष्ठ जी तथा पुलस्त्य जी से मैंने सुना था। मैं आपकी जिज्ञासा यथासम्भव शान्त करूँगा। आप पूर्णमनोयोग से सुनें। प्राचीन काल में विश्वामित्र की प्रेरणा से मेरे पिता को एक राक्षस ने खा डाला था जिससे मेरा क्रोध बढ़ गया था। शोक एवं क्रोधावेश में आकर मैंने राक्षसों का विनाश करने के लिये एक यज्ञ अनुष्ठित किया। यज्ञाहुतियों के साथ सैकड़ों राक्षस जल कर भष्म होने लगे। तब मेरे दादा वशिष्ठ जी ने मुझसे समझाते हुए कहा हे वत्स ! क्रोध का त्याग करो। इन राक्षसों का क्या दोष ? तुम्हारे पिता के भाग्य का लेख ही ऐसा था। ज्ञानी को क्रोध शोभा नहीं देता। मारना जिलाना ईश्वर के आधीन है भले ही निमित्त कोई भी बन जाय। यज्ञ को यहीं विराम दो ! क्षमा साधु का भूषण होता है।

उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने यज्ञ बन्द कर दिया। मेरे दादा वशिष्ठ जी मुझ पर प्रसन्न हुए। उसी समय पुलस्त्य जी भी वहाँ आ गए। वशिष्ठ जी ने उनका अभिवादन करते हुए उन्हें अर्ध्य देकर आसन प्रदान किया। फिर बातों-बातों में मेरे विषय में भी बता दिया। तब पुलस्त्य जी ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा कि तुमने अपने पितामह की आज्ञा मानकर क्षमा का आश्रय लिया। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूँ कि सम्पूर्ण सास्त्रों का ज्ञान तुम्हें सहज ही हो जाएगा और तुम पुराण संहिता की रचना करोगे तथा तुम्हें ईश्वर के यथार्थ रूप का ज्ञान हो जायेगा। पूर्वर्ती काल में उन दोनों ऋषियों के वर के प्रभाव से मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया। यह संसार विष्णु के द्वारा उत्पन्न किया गया वही इसके पालक हैं तथा प्रलय में यह उन्हीं में लय हो जाता है।

सृष्टि का उद्भव


महर्षि पाराशार ने कहा हे मुनीश्वर ! ब्रह्मा रूप में सृष्टि विष्णु रूप में पालन तथा रुद्र रूप में संहार करने वाले भगवान विष्णु को नमन करता हूँ। एक रूप होते हुए भी अनेक रूपधारी, अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त रूप वाले, घट घट वासी अविनाशी पुरुषोत्तम को नमस्कार करते हुए मैं आपके द्वारा पूछे गए प्रश्नों के विषय में कहने जा रहा हूँ।

भगवान नारायण त्रिगुण प्रधान तथा विष्ण के मूल है। वह अनादि हैं। उत्पत्ति लय से रहित हैं। वह सर्वत्र तथा सबमें व्याप्त हैं। प्रलय काल में दिन था न रात्रि, न पृथ्वी न आकाश, न प्रकाश और न अन्धकार ही था। केवल ब्रह्म पुरुष ही था। विष्णु के निरूपाधि रूप से दो रूप हुए। पहला प्रधान और दूसरा पुरुष। विष्णु के जिस अन्य रूप द्वारा वह दोनों सृष्टि तथा प्रलय में संयुक्त अथवा वियुक्त होते हैं उस रूपान्तर को ही काल कहा जाता है। बीत चुके प्रलय काल में इस व्यक्त प्रपंच की स्थित प्रकृति में ही थी।

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                                                                                                                                                                                                               Source:https://bit.ly/2BC8B5y

Wednesday, February 13, 2019

भगवन श्री कृष्णा (Shri Krishna) के जन्म की कथा ।


श्री कृष्ण जी का जन्म  भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि की घनघोर अंधेरी आधी रात में हुआ था .रोहिणी नक्षत्र में मथुरा के कारागार में वसुदेव जी  की पत्नी देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। यह तिथि उसी शुभ घड़ी की याद दिलाती है और सारे देश में बड़ी धूमधाम से जन्माष्टमी(janmashtami) के रूप में मनाई जाती है।

क्यों भगवान श्रीकृष्ण जी का जन्म की कथा अद्भुत है ?

‘द्वापर युग में भोजवंशी राजा उग्रसेन मथुरा में राज्य करता था। उसके आततायी पुत्र कंस ने उसे गद्दी से उतार दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा। कंस की एक बहन देवकी थी, जिसका विवाह वसुदेव नामक यदुवंशी सरदार से हुआ था।
एक समय कंस अपनी बहन देवकी को उसकी ससुराल पहुंचाने जा रहा था। रास्ते में आकाशवाणी हुई- ‘हे कंस, जिस देवकी को तू बड़े प्रेम से ले जा रहा है, उसी में तेरा काल बसता है। इसी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक तेरा वध करेगा।’ यह सुनकर कंस वसुदेव को मारने के लिए उद्यत हुआ।
तब देवकी ने उससे विनयपूर्वक कहा- ‘मेरे गर्भ से जो संतान होगी, उसे मैं तुम्हारे सामने ला दूंगी। बहनोई को मारने से क्या लाभ है?’ कंस ने देवकी की बात मान ली और मथुरा वापस चला आया। उसने वसुदेव और देवकी को कारागृह में डाल दिया।
वसुदेव-देवकी के एक-एक करके सात बच्चे हुए और सातों को जन्म लेते ही कंस ने मार डाला। अब आठवां बच्चा होने वाला था। कारागार में उन पर कड़े पहरे बैठा दिए गए। उसी समय नंद की पत्नी यशोदा को भी बच्चा होने वाला था।
उन्होंने वसुदेव-देवकी के दुखी जीवन को देख आठवें बच्चे की रक्षा का उपाय रचा। जिस समय वसुदेव-देवकी को पुत्र पैदा हुआ, उसी समय संयोग से यशोदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ, जो और कुछ नहीं सिर्फ ‘माया’ थी।

जिस कोठरी में देवकी-वसुदेव कैद थे, उसमें अचानक प्रकाश हुआ और उनके सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए चतुर्भुज भगवान प्रकट हुए। दोनों भगवान के चरणों में गिर पड़े। तब भगवान ने उनसे कहा- ‘अब मैं पुनः नवजात शिशु का रूप धारण कर लेता हूं।

तुम मुझे इसी समय अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में भेज आओ और उनके यहां जो कन्या जन्मी है, उसे लाकर कंस के हवाले कर दो। इस समय वातावरण अनुकूल नहीं है। फिर भी तुम चिंता न करो। जागते हुए पहरेदार सो जाएंगे, कारागृह के फाटक अपने आप खुल जाएंगे और उफनती अथाह यमुना तुमको पार जाने का मार्ग दे देगी।’

उसी समय वसुदेव नवजात शिशु-रूप श्रीकृष्ण को सूप में रखकर कारागृह से निकल पड़े और अथाह यमुना को पार कर नंदजी के घर पहुंचे। वहां उन्होंने नवजात शिशु को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा आ गए। कारागृह के फाटक पूर्ववत बंद हो गए।
अब कंस को सूचना मिली कि वसुदेव-देवकी के  बच्चे का जन्म हुआ है। उसने बंदीगृह में जाकर देवकी के हाथ से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटक देना चाहा, परंतु वह कन्या आकाश में उड़ गई और वहां से कहा- ‘अरे मूर्ख, मुझे मारने से क्या होगा? तुझे मारनेवाला तो वृंदावन में जा पहुंचा है। वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का दंड देगा।

क्यों मनाते है जन्माष्टमी(janmashtami) ?
इस दिन श्री कृष्ण जी का जन्म हुआ था जो की बहुत ही अद्भुत था। इनका जन्म काली अँधेरी रात में हुआ लेकिन सभी भक्तो के जीवन में प्रकाश ही प्रकाश फ़ैल गया। 
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Source:https://bit.ly/2WUlMrL

Tuesday, February 12, 2019

भगवान् गणेश और कावेरी नदी की कहानी |


एक बार की बात है, अगस्त्य ऋषि भगवान् विष्णु और शिव का आशीर्वाद लेने के लिए गए|
अगस्त्य ऋषि एक नदी का निर्माण करना चाहते थे जो दक्षिण भारत के लोगों के लिए सिचाई और पीने का पानी उपलब्द करवा सके|
भगवान् शिव ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और उनके कमंडल में दिव्य पानी डाल दिया| और कहा इस कमंडल का पानी जिस जगह गिरेगा वहीँ से नदी का आरंभ होगा|
कमंडल ले कर अगस्त्य ऋषि अब ऐसी जगह की तलाश करने लगे जहाँ से नदी की शुरुआत हो सके| स्थान खोजने के लिए वो कूर्ग पहाड़ियों पर घूम रहे थे| लेकिन किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे|
अचानक अगस्त्य ऋषि को एक छोटा बच्चा वहां दिखाई दिया| ऋषि को लघुशंका के लिए जाना था| ऋषि ने अपना कमंडल कुछ देर के लिए उस छोटे बच्चे को देखभाल के लिए दे दिया|
वो छोटा बालक और कोई नहीं, भगवान् गणेश थे| भगवान् गणेश को पता था, कोन सा स्थान नदी के प्रारम्भ के लिए ठीक होगा| जिससे ज्यादा से ज्यादा दक्षिण भारत के क्षेत्रों को पानी मिल सके|
उन्होंने कमंडल वहीँ धरती पर रख दिया| तभी एक कोवा कमंडल पर पानी पिने के लिए बेठा| और कमंडल को वही गिरा दिया| बस वहीँ से नदी का प्रारंभ हुआ| इसी नदी को कावेरी के नाम से जाना जाता है|
Moral:-
जीवन में जो कुछ भी होता है, अच्छे के लिए होता है| अगर आपको लगता है की कुछ आपके साथ बुरा हुआ है| बेफिक्र रहिये,. उस घटना के अच्छे परिणाम हमें भविष्य में देखने को मिलेंगे|
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Monday, February 11, 2019

शिव कथा (Shiv Katha)- जानिए भगवान शिव क्यों कहलाए त्रिपुरारी |


कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के त्रिपुरों का नाश किया था। त्रिपुरों का नाश करने के कारण ही भगवान शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी प्रसिद्ध है। भगवान शिव ने कैसे किया त्रिपुरों का नाश, ये पूरी कथा इस प्रकार है-
ब्रह्माजी ने दिया था ये अनोखा वरदान
शिवपुराण के अनुसार, दैत्य तारकासुर के तीन पुत्र थे- तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली। जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके पुत्रों को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने देवताओं से बदला लेने के लिए घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो उन्होंने अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने के लिए कहा।
तब उन तीनों ने ब्रह्माजी से कहा कि- आप हमारे लिए तीन नगरों का निर्माण करवाईए। हम इन नगरों में बैठकर सारी पृथ्वी पर आकाश मार्ग से घूमते रहें। एक हजार साल बाद हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर (नगर) मिलकर एक हो जाएं, तो जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
मयदानव ने किया था त्रिपुरों का निर्माण
ब्रह्माजी का वरदान पाकर तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली बहुत प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। उनमें से एक सोने का, एक चांदी का व एक लोहे का था। सोने का नगर तारकाक्ष का था, चांदी का कमलाक्ष का व लोहे का विद्युन्माली का।
अपने पराक्रम से इन तीनों ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। इन दैत्यों से घबराकर इंद्र आदि सभी देवता भगवान शंकर की शरण में गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए तैयार हो गए। विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।
ऐसे हुआ त्रिपुरों का नाश
चंद्रमा व सूर्य उसके पहिए बने, इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपाल उस रथ के घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा। स्वयं भगवान विष्णु बाण तथा अग्निदेव उसकी नोक बने। उस दिव्य रथ पर सवार होकर जब भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए चले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया।
दैत्यों व देवताओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आए, भगवान शिव ने दिव्य बाण चलाकर उनका नाश कर दिया। त्रित्रुरों का नाश होते ही सभी देवता भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के लिए ही भगवान शिव को त्रिपुरारी भी कहते हैं।
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