Friday, July 28, 2017

शनिदेव पर क्यों चढ़ाया जाता है तिल का तेल?


सभी नौ ग्रहों में शनिदेव का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। शनि को न्यायाधीश का पद प्राप्त है। इस वजह से शनि ही हमारे कर्मों का शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं। जिस व्यक्ति के जैसे कर्म होते हैं, ठीक वैसे ही फल शनि प्रदान करते हैं। शनिदेव न्याय, श्रम और प्रजा के देवता हैं। यदि किसी व्यक्ति के कर्म पवित्र हैं तो शनि सुख-समृद्ध जीवन प्रदान करते हैं। गरीब और असहाय लोगों पर शनि की विशेष कृपा रहती है। जो लोग किसी गरीब को परेशान करते हैं, उन्हें शनि के कोप का सामना करना पड़ता है। शनि पश्चिम दिशा के स्वामी हैं। वायु इनका तत्व है। साथ ही शनि व्यक्ति के शारीरिक बल को भी प्रभावित करता है।

लोग हर शनिवार मंदिर में शनिदेव की मूर्ति पर तिल के तेल को अर्पित करते देखे जा सकते हैं। अधिकांश लोग इस कर्म को शनि की कृपा प्राप्त करने की प्राचीन परंपरा मानते हैं। वास्तविकता में इस परंपरा के पीछे धार्मिक और ज्योतिषी महत्व है। धार्मिक मतानुसार तिलहन अर्थात तिल भगवान विष्णु के शरीर का मैल हैं तथा इससे बने हुए तेल को सर्वदा पवित्र माना जाता है।

तिल के तेल चढ़ाने का धार्मिक महत्व: शास्त्र आंनद रामायण के अनुसार हनुमान जी पर जब शनि की दशा प्रांरभ हुई उस समय समुद्र पर रामसेतु बांधने का कार्य चल रहा था। राक्षस पुल को हानि न पहुंचाए, यह आंशका सदैव बनी हुई थी। पुल की सुरक्षा का दायित्‍व हनुमान जी को सौपा गया था। शनिदेव हनुमान जी के बल और कीर्ति को जानते थे। उन्‍हानें पवनपुत्र को शरीर पर ग्रहचाल की व्‍यवस्‍था के नियम को बताते हुए अपना आशय बताया।

हनुमान जी ने कहां कि वे प्रकृति के नियम का उल्‍लघंन नहीं करना चाहते लेकिन राम-सेवा उनके लिए सर्वोपरि हैं। उनका आशय था कि राम-काज होने के बाद ही शनिदेव को अपना पूरा शरीर समर्पित कर देंगे परंतु शनिदेव ने हनुमान जी का आग्रह नहीं माना।

वे अरूप होकर जैसे ही हनुमान जी के शरीर पर आरूढ़ हुए, हनुमान जी ने विशाल पर्वतों से टकराना शुरू कर दिया। शनिदेव शरीर पर जिस अंग पर आरूढ़ होते, महाबली हनुमान जी उसे ही कठोर पर्वत शिलाओं से टकराते। फलस्‍वरूप शनिदेव बुरी तरह घायल हो गए। उनके शरीर पर एक-एक अंग आहत हो गया। शनिदेव जी ने हनुमान जी से अपने किए की क्षमा मांगी। हनुमान जी ने शनिदेव से वचन लिया कि वे उनके भक्तों को कभी कष्‍ट नहीं पहुंचाएगें। आश्‍वस्‍त होने के बाद रामभक्‍त अंजनीपुत्र ने कृपा करते हुए शनिदेव को तिल का तेल दिया, जिसे लगाते ही उनकी पीड़ा शांत हो गई। तब से शनिदेव को प्रसन्‍न करने के लिए उन पर तिल के तले से अभिषेक किया जाता हैं।

तिल के तेल चढ़ाने का ज्योतिषीय महत्व: ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि की धातु सीसा है। इसे संस्‍कृत भाषा में नाग धातु भी कहते हैं। इसी धातु से सिंदूर का निर्माण होता हैं। सीसा धातु विष भी हैं। तंत्र शास्‍त्र में इसके विभिन्‍न प्रयोगों की विस्‍तार से चर्चा की गई है। सिंदूर पर मंगल का अधिपत्य होता है। लोहा पृथ्वी के गर्भ से निकलता है और मंगल ग्रह देवी पृथ्वी के पुत्र माने जाते हैं अतः लोहा मंगल ग्रह की धातु है। तेल को स्‍नेह भी कहा गया है। यह लोहे को सुरक्षित रखता है। लोहे पर यह जंग नहीं लगने देता और यदि लगा हुआ हो तो उसे साफ कर देता है। मंगल प्रबल हो तो शनि का दुष्‍प्रभाव खत्‍म हो जाता है। इसे शनि को शांत करने का सरल उपाय कहा गया हैं। तिल का तेल चढाने का अर्थ हैं समर्पण।

Thursday, July 27, 2017

|| विश्वम्भरी स्तुति ||

|| जय आद्य शक्ती, विश्वंभरी स्तुति ||


विश्वंभरी अखिल विश्व तनी जनेता
विद्या धरी वदनमा वसजो विधाता
दुर्बुद्धिने दूर करी सदबुद्धि आपो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

भूलो पड़ी भवरने भटकू भवानी
सूझे नहीं लगिर कोई दिशा जवानी
भासे भयंकर वाली मन ना उतापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

आ रंकने उगरावा नथी कोई आरो
जन्मांड छू जननी हु ग्रही बाल तारो
ना शु सुनो भगवती शिशु ना विलापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

माँ कर्म जन्मा कथनी करता विचारू
आ स्रुष्टिमा तुज विना नथी कोई मारू
कोने कहू कथन योग तनो बलापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

हूँ काम क्रोध मद मोह थकी छकेलो
आदम्बरे अति घनो मदथी बकेलो
दोषों थकी दूषित ना करी माफ़ पापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

ना शाश्त्रना श्रवण नु पयपान किधू
ना मंत्र के स्तुति कथा नथी काई किधू
श्रद्धा धरी नथी करा तव नाम जापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

रे रे भवानी बहु भूल थई छे मारी
आ ज़िन्दगी थई मने अतिशे अकारि
दोषों प्रजाली सगला तवा छाप छापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

खाली न कोई स्थल छे विण आप धारो
ब्रह्माण्डमा अणु अणु महि वास तारो
शक्तिन माप गणवा अगणीत मापों
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

पापे प्रपंच करवा बधी वाते पुरो
खोटो खरो भगवती पण हूँ तमारो
जद्यान्धकार दूर सदबुध्ही आपो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

शीखे सुने रसिक चंदज एक चित्ते
तेना थकी विविधः ताप तळेक चिते
वाधे विशेष वली अंबा तना प्रतापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

श्री सदगुरु शरणमा रहीने भजु छू
रात्री दिने भगवती तुजने भजु छू
सदभक्त सेवक तना परिताप छापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

अंतर विशे अधिक उर्मी तता भवानी
गाऊँ स्तुति तव बले नमिने मृगानी
संसारना सकळ रोग समूळ कापो
माम पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो

Wednesday, July 26, 2017

श्री कृष्ण कैसे बने कालिया नाग का काल ?

वृंदावन के नजदीक एक तालाब था, जिसमें कालिया नाम का एक विशालकाय नाग अपने तमाम दूसरे सर्प साथियों के साथ रहता था।


आसपास के इलाके में रहने वालों के लिए ये नाग एक तरह का आतंक बन गए थे, क्योंकि जो कोई भी उनके नजदीक जाता, वे उसे काट लेते। इन सांपों के जहर से लोगों की मौत हो जाती। इंसान ही क्या, तालाब में पानी पीने के लिए आने वाले जानवरों को भी ये नाग काट लेते थे।

कुछ ग्वाले अपनी गायों को चराने तालाब के नजदीक ले गए। कुछ गायों ने जैसे ही तालाब का पानी पिया, सांपों ने उन्हें डस लिया और वे वहीं ढेर हो गईं। ग्वाले घबरा गए और उन्होंने रोना शुरू कर दिया क्योंकि मर चुकी गायों को लेकर घर जाने की उनके अंदर हिम्मत नहीं थी। यह सब देखकर कृष्ण ने कहा, ‘बस बहुत हो चुका। अब मैं जरा देखता हूं इस नाग को।’ जैसे लोगों से निपटने का उनका अपना एक खास अंदाज था, वैसे ही जानवरों से निपटने का भी उनका एक तरीका था। वे उस तालाब के अंदर घुसे और उन्होंने उस नाग को बाहर निकाला और उसके पीछे बाकी नाग भी बाहर आ गए।

कालिया एक भयानक विशाल नाग था। उससे निपटने के लिए कृष्ण ने तालाब में छलांग लगा दी। लोगों को लगा कि बस अब उनका अंत हो जाएगा।

कृष्ण के कूदने की वजह से पानी में जो लहरें पैदा हुईं, उनके चलते नाग तुरंत ही बाहर आ गए और मौका देखकर कृष्ण ने कालिया को दबोच लिया। उसके साथ किनारे तक तैरते हुए आए, कुछ देर तक संघर्ष चलता रहा और अंत में वे उस पर हावी हो गए। इस तरह से कृष्ण ने इस तालाब को जहरीले सांपों से मुक्त कर दिया, जिसके चलते वहां के लोग परेशान रहते थे। लोगों को लगा कि यह तो जबर्दस्त चमत्कार हो गया।

जिस वक्त कृष्ण कालिया नाग के साथ संघर्ष कर रहे थे, कुछ ग्वालों ने गांव में जाकर सबको बता दिया कि कृष्ण ने खतरनाक सांपों से भरे उस तालाब में छलांग लगा दी है। पूरा का पूरा गांव वहां इकठ्ठा हो गया। वहां जो कुछ भी हो रहा था, उसे देखकर हर कोई डरा हुआ था। माता यशोदा भी वहां आईं और जोर-जोर से रोने लगीं।

फिर राधे आईं। कृष्ण को देखकर वह चीख पड़ीं। उन्होंने कृष्ण को गले लगाया, फिर वह गिर गईं और मूर्छित हो गईं। गांव के बड़े बुजुर्गों को राधे का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि कृष्ण के प्रति राधे का जबर्दस्त लगाव सही नहीं है और उस दिन के बाद से राधे को घर से निकलने पर ही रोक लगा दी गई। राधे भीतर ही भीतर घुटी जा रही थीं, क्योंकि अब वह कृष्ण के साथ न तो खेल सकती थीं और न नृत्य कर सकती थीं। जब कभी भी उन्हें बांसुरी की आवाज सुनाई देती या पता चलता कि रासलीला चल रही है तो वह खुद को रोक नहीं पातीं और वह भागने की कोशिश करतीं। घरवालों को जब यह पता चला तो उन्होंने राधे को खाट से बांध दिया, जिससे कि वह कहीं बाहर न जा सकें।

copyrights :- http://bit.ly/2uAd58c

Monday, July 24, 2017

भगवान गणेश को क्यों नहीं चढ़ाते तुलसी ?


धर्म ग्रंथो के अनुसार भगवान गणेश को भगवान  श्री कृष्ण का अवतार बताया गया है और भगवान श्री कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु के अवतार है। लेकिन जो तुलसी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है, इतनी प्रिय की भगवान विष्णु के ही एक रूप शालिग्राम का विवाह तक तुलसी से होता है वही तुलसी भगवान गणेश को अप्रिय है, इतनी अप्रिय की भगवान गणेश के पूजन में इसका प्रयोग वर्जित है।  पर ऐसा क्यों है इसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है

एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप कर रहे थे। इसी कालावधि में धर्मात्मज की नवयौवना कन्या तुलसी ने विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा पर प्रस्थान किया। देवी तुलसी सभी तीर्थस्थलों का भ्रमण करते हुए गंगा के तट पर पंहुची। गंगा तट पर देवी तुलसी ने युवा तरुण गणेश जी को देखा जो तपस्या में विलीन थे। शास्त्रों के अनुसार तपस्या में विलीन गणेश जी रत्न जटित सिंहासन पर विराजमान थे। उनके समस्त अंगों पर चंदन लगा हुआ था। उनके गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे। उनके कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था।



तुलसी श्री गणेश के रुप पर मोहित हो गई और उनके मन में गणेश से विवाह करने की इच्छा जाग्रत हुई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया।

श्री गणेश द्वारा अपने विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने से देवी तुलसी बहुत दुखी हुई और आवेश में आकर उन्होंने श्री गणेश के दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने का शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा। किंतु फिर तुम भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा।

तब से ही भगवान श्री गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है।

copyrights :- http://bit.ly/2uvy9wo

भगवान शिव को बेल पत्र परमप्रिय क्यों है?

भगवान शिव को बेल पत्र परमप्रिय है। यह बात तो सभी को पता है लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान शिव के अंशावतार हनुमान जी को भी बेल पत्र अर्पित करने से प्रसन्न किया जा सकता है और लक्ष्मी का वर पाया जा सकता है। घर की धन-दौलत में वृद्धि होने लगती है। अधूरी कामनाओं को पूरा करता है सावन का महीना शिव पुराण अनुसार सावन माह के सोमवार को शिवालय में बेलपत्र चढ़ाने से एक करोड़ कन्यादान के बराबर फल मिलता है। कुछ विशेष दिनों में ही प्राप्त कर सकते हैं साल भर की पूजा का फल।


भगवान शिव को बेल पत्र परमप्रिय है। यह बात तो सभी को पता है लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान शिव के अंशावतार हनुमान जी को भी बेल पत्र अर्पित करने से प्रसन्न किया जा सकता है और लक्ष्मी बेलपत्र का चमत्कारी वृक्ष हर कामना को पूरी करता है। यही नहीं उसके पत्तों को गंगा जल से धोकर उन्हें बजरंगबली पर अर्पित करने से मिलता है तीर्थों का फल। इसके बारे में तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मुख से कहलवाया है, 'शिवद्रोही मम दास कहावा. सो नर सपनेहु मोहि नहिं भावा.' अर्थात: जो शिव का द्रोह करके मुझे प्राप्त करना चाहता है, वह सपने में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता ।

बेल के पेड़ की जरा सी जड़ सफेद धागे में पिरोकर रविवार को पहनें इससे रक्तचाप, क्रोध और असाध्य रोगों से निजात मिलेगा। बिल्व पत्र को श्री वृक्ष भी कहा जाता है। बिल्व पत्र का पूजन पाप व दरिद्रता का अंत कर वैभवशाली बनाने वाला माना गया है। घर में बेल पत्र लगाने से देवी महालक्ष्मी बहुत प्रसन्न होती हैं। इन पत्तों को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। इन्हें अपने पास रखने से कभी धन-दौलत का अभाव नहीं होता। बिल्वपत्र या बेलपत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है। कहते हैं शिव को बिल्वपत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। बिल्वपत्र पेड़ की पत्तियों की खासियत यह है कि ये तीन के समूह में मिलती हैं। आगे की स्लाइड्स पर क्लिक करें और जानें बिल्व वृक्ष की इन पत्तियों का क्या है धार्मिक और औषधीय महत्व-बिल्व वृक्ष को महादेव का रूप माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि बिल्व वृक्ष के जड़ में महादेव का वास रहता है इसलिए इस पेड़ की जड़ में महादेव की पूजा की जाती है। इतना ही नहीं, कहते हैं बिल्व वृक्ष को सींचने से सभी तीर्थों का फल मिल जाता है।हालांकि बिल्वपत्र को हमेशा नहीं तोड़ सकते।

- शिव उपासना के प्रमुख दिन सोमवार को बिल्वपत्र नहीं तोड़ना चाहिए।

- चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या को बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए।

- किसी माह में संक्राति के दिन भी बिल्वपत्र तोड़ना उचित नहीं है।अगर इन तिथियों में शिवपूजा में बिल्वपत्र की आवश्यकता हो तो उसके लिए यह नियम है कि आप शिव पूजा में उपयोग किए गए बिल्वपत्र को फिर से धोकर शिव को अर्पित कर सकते हैं।

पूजा में महत्व- बिल्व वृक्ष या बेल का पेड़ हमारे लिए एक उपयोगी वनस्पति है जो हमारे कष्टों को दूर करता है। भगवान शिव को बिल्व वृक्ष की पत्तियां चढ़ाने का अर्थ यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में उनके काम आएं। दूसरों के दुख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है।औषधीय गुण- बिल्वपत्र का सेवन, त्रिदोष यानी वात (वायु), पित्त (ताप), कफ (शीत) व पाचन क्रिया के दोषों से पैदा बीमारियों से रक्षा करता है। यह त्वचा रोग और डायबिटीज के बुरे प्रभाव बढ़ने से भी रोकता है व तन के साथ मन को भी चुस्त-दुरुस्त रखता है।

बेलपत्र और समीपत्र भगवान शिव को भक्त प्रसन्न करने के लिए बेलपत्र और समीपत्र चढ़ाते हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार जब 89 हजार ऋषियों ने महादेव को प्रसन्न करने की विधि परम पिता ब्रह्मा से पूछी तो ब्रह्मदेव ने बताया कि महादेव सौ कमल चढ़ाने से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना ही एक नीलकमल चढ़ाने पर होते हैं। ऐसे ही एक हजार नीलकमल के बराबर एक बेलपत्र और एक हजार बेलपत्र चढ़ाने के फल के बराबर एक समीपत्र का महत्व होता है।

बेलपत्र ने दिलाया वरदान; बेलपत्र महादेव को प्रसन्न करने का सुलभ माध्यम है। बेलपत्र के महत्व में एक पौराणिक कथा के अनुसार एक भील डाकू परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटा करता था। सावन महीने में एक दिन डाकू जंगल में राहगीरों को लूटने के इरादे से गया। एक पूरा दिन-रात बीत जाने के बाद भी कोई शिकार नहीं मिलने से डाकू काफी परेशान हो गया। इस दौरान डाकू जिस पेड़ पर छुपकर बैठा था, वह बेल का पेड़ था और परेशान डाकू पेड़ से पत्तों को तोड़कर नीचे फेंक रहा था। डाकू के सामने अचानक महादेव प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। अचानक हुई शिव कृपा जानने पर डाकू को पता चला कि जहाँ वह बेलपत्र फेंक रहा था उसके नीचे शिवलिंग स्थापित है।

copyrights:-http://bit.ly/2tsQYPL

Friday, July 14, 2017

भीम में कैसे आया 10 हज़ार हाथियों का बल?

पाण्डु पुत्र भीम के बारे में माना जाता है की उसमे दस हज़ार हाथियों का बल था जिसके चलते एक बार तो उसने अकेले ही नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था।  लेकिन भीम में यह दस हज़ार हाथियों का बल आया कैसे इसकी कहानी बड़ी ही रोचक है।


कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था।  पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया।

हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।

दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।

तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।

उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा।

Copyrights:- http://bit.ly/2t0U5ya 

Wednesday, July 12, 2017

साईं बाबा की मूर्ति का राज?

शिरडी के संत साईं बाबा को गुरू का दर्जा का प्राप्त है इसलिए साईं मंदिर में गुरूवार को बड़ी संख्या में श्रद्घालु बाबा के दर्शनों के लिए आते हैं। अगर आप कभी साईं मंदिर में गए हैं या उनकी मूर्तियों को देखा तो जरा ध्यान करके सोचिए हर मूर्ति में साईं बाबा एक बुजुर्ग की तरह नजर आते हैं जो एक ऊंचे आसन पर पैर पर पैर चढ़ाकर बैठे होते हैं।


साईं बाबा की ऐसी मूर्तियों के पीछे कारण यह है कि साईं बाबा प्रमुख स्थान शिरडी में साईं बाबा जो मूर्ति है उसी के अनुरूप सभी मूर्तियों का निर्माण हुआ है। लेकिन शिरडी में साईं बाबा की मूर्ति इस प्रकार कैसे बनी इसकी एक बेहद ही रोचक और रहस्यमयी कहानी है जो कम लोग ही जानते हैं।

साईं बाबा ने अपने जीवन का बड़ा भाग शिरडी में बिताया और यहीं पर साईं ने अपनी अंतिम सांस ली। इसलिए शिरडी को साईं का धाम माना जाता है। साईं बाबा के बारे में कई ऐसी कथाएं मिलती हैं जिसके अनुसार अपने जीवनकाल में साईं ने बड़े ही अद्भुत चमत्कार दिखाए थे।

साईं भक्त मानते हैं कि शरीर त्याग करने के बाद भी साईं उनके बीच हैं और संकट के समय भक्तों की पुकार पर किसी चमत्कार की तरह उन्हें संकट से उबाड़ लेते हैं। साईं की मूर्ति के बारे में भी माना जाता है कि इसका निर्माण भी एक चमत्कार की तरह ही हुआ था।


ऐसी कथा है कि साईं बाबा की महासामधि के बुट्टी वाडा में उनकी तस्वीर रखकर उनकी पूजा होती थी। 1954 तक इसी तरह साईं बाब की पूजा होती थी। लेकिन एक दिन अचानक ही इटली से मुंबई बंदरगाह पर आए। लेकिन इस मार्बल को किसने और क्यों मुंबई भेजा यह किसी को पता नहीं।

शिरडी संस्थान ने मार्बल को साईं की मूर्ति बनाने के लिए ले लिए। इसके बाद मूर्ति बनाने का काम वसंत तालीम नाम के मूर्तिकार को सौंपा गया। ऐसी मान्यता है कि मूर्तिकार ने साईं बाबा से प्रार्थना की आशीर्वाद दीजिए की आपकी मूर्ति मैं आपकी छवि जैसी बना सकूं। कहते हैं साईं बाबा ने मूर्तिकार को दर्शन देकर अपनी छवि दिखाई और उसी छवि को देखकर मूर्तिकार ने साईं की मूर्ति का निर्माण किया जो शिरडी के समाधि मंदिर में विराजमान है। और साईं की यह छवि पूरी दुनिया में साईं भक्तों की आस्था का प्रीतक है।


साईं बाबा की जो मूर्ति आप शिरडी में देखते हैं उस मूर्ति को विजया दशमी के दिन मंदिर में स्थापित किया गया था। यह मूर्ति का आकार 4 फुट 5 इंच है। इस मंदिर में साईं बाबा का ख्याल एक बुजुर्ग साधु की तरह रखा जाता है।

हर दिन साईं बाबा को सुबह स्नान करवाया जाता है और दिन में चार बार उनके वस्त्र बदले जाते हैं। इन्हें नाश्ता और खाना भी खिलाया जाता है। रात के समय मच्छरदानी लगाया जाता है ताकि बाबा का मच्छर न काटे। पानी का गिलास भी साईं बाबा के पास रखा जाता है।

Tuesday, July 11, 2017

आखिर क्यूं आया था बलरामजी को गुस्सा?

महाभारत की कहानी तो सभी को पता है. इस कहानी में कृष्ण, अर्जुन और भीम के पराक्रम की कहानी तो सभी ने सुनी है लेकिन इस महाभारत के एक अहम किरदार बलदाऊ या बलरामजी भी थे. बलराम जी ही दुर्योधन के गुरु थे. बलराम जी के ही निरक्षण में भीम और दुर्योधन के बीच गद्दा युद्ध हुआ था. आइयें आज इस कहानी पर एक नजर डालें और इतिहास के इस महान व्यक्ति के जीवन पर एक नजर डालें:


कथा शुरु होती है भीम और दुर्योधन के युद्ध से. दोनों ही कवच पहनकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। दुर्योधन भी सिरपर टोप लगाए सोने का कवच बांधे भीम के सामने  डट गया। गदाएं ऊपर उठी और दोनों भयंकर पराक्रम दिखाने लगे। कृष्ण ने अर्जुन से कहा भीमसेन को आज अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए जो उन्होंने सभा में की थी कि मैं युद्ध में दुर्योधन की जंघा तोड़ दूंगा अब आगे..

अर्जुन श्रीकृष्ण का इशारा समझ गए। उन्होंने भीमसेन की ओर देखकर उनकी जंघाओं की तरफ इशारा किया। भीमसेन समझ गए। दोनों का युद्ध चलता रहा। दुर्योधन के थोड़ा कमजोर पडऩे पर भीमसेन की जंघाओं पर प्रहार किया। लेकिन यह युद्ध के नियमों के खिलाफ था। जब बलराम ने यह देखा कि दुर्योधन के साथ अधर्म किया जा रहा है तो वे अन्याय देखकर चुप न रह सके। उन्होंने कहा कि भीमसेन तुम्हे धित्कार है। बड़े अफसोस की बात है कि इस युद्ध के नियमों का पालन न करके आप नाभि के नीचे प्रहार कर रहे हें।

इसके बाद इन्होंने दुर्योधन की ओर दृष्टिपात किया, उसकी दशा देख उनकी आंखे क्रोध से लाल हो गई। वे कृष्ण से कहने लगे- कृष्ण दुर्योधन मेरे समान बलवान है इसकी समानता करने वाला कोई नहीं हे। आज अन्याय करके दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है।  तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि जब दुर्योधन ने द्रोपदी के साथ र्दुव्यहार किया था तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी गदाओं से दुर्योधन की जंघाओं को तोड़ देंगे।

Monday, July 10, 2017

गणपति बप्पा के साथ क्यों जुड़ा है ‘मोरया’का नाम ?


आस्था की एक अनोखी यात्रा पिछले 600 सालों से जारी है। इस यात्रा में करोड़ों भक्त शामिल हैं। उनमें से कुछ इस यात्रा के बारे में जानते हैं तो कुछ बिना जाने चल रहे हैं। हम बात कर रहे हैं करोड़ों गणेश भक्तों की, जो सालों से गणपति बप्पा मोरया के नारे लगा रहे हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर नहीं जानते कि मोरया असल में थे कौन?

हो सकता है कि देश के हजारों गणेश भक्तों की तरह आप भी गणपति बप्पा के मोरया की कहानी ना जानते हों, लेकिन पुणे से 18 किलोमीटर दूर चिंचवाड़ के इस इलाके का बच्चा-बच्चा मोरया की कहानी जानता है। मोरया गोसावी 14वीं शताब्दी के वो महान गणपति भक्त हैं जिनकी आस्था की चर्चा उस दौर के पेशवाओं तक पहुंची तो वो भी इस दर पर अपना माथा टेकने यहां तक चले आए। उन्हीं के नाम पर बना मोरया गोसावी समाधि मंदिर आज करोड़ों भक्तों की आस्था का केंद्र है। पुणे से करीब 18 किलोमीटर दूर चिंचवाड़ में इस मंदिर की स्थापना खुद मोरया गोसावी ने की थी। इस मंदिर के निर्माण की कहानी बेहद रोचक है।

कहते हैं कि मोरया गोसावी हर गणेश चतुर्थी को चिंचवाड़ से पैदल चलकर 95 किलोमीटर दूर मयूरेश्वर मंदिर में भगवान गणेश के दर्शन करने जाते थे। ये सिलसिला उनके बचपन से लेकर 117 साल तक चलता रहा। उम्र ज्यादा हो जाने की वजह से उन्हें मयूरेश्वर मंदिर तक जाने में काफी मुश्किलें पेश आने लगी थीं। तब एक दिन गणपति उनके सपने में आए।

चिंचवाड़ देवस्थान के ट्रस्टी विश्राम देव कहते हैं कि 1492 की बात है। 117 साल उम्र थी। मयूरेश्वर जी सपने में आए, कहा कि जब स्नान करोगे तो मुझे पाओगे। जैसा सपने में देखा था, ठीक वैसा ही हुआ। मोरया गोसावी जब कुंड से नहाकर बाहर निकले तो उनके हाथों में मयूरेश्वर गणपति की छोटी सी मूर्ति थी। उसी मूर्ति को लेकर वो चिंचवाड़ आए और यहां उसे स्थापित कर पूजा-पाठ शुरू कर दी। धीरे-धीरे चिंचवाड़ मंदिर की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैल गई। महाराष्ट्र समेत देश के अलग-अलग कोनों से गणेश भक्त यहां बप्पा के दर्शन के लिए आने लगे। इस मंदिर में प्रवेश करते ही आपको कण-कण में भगवान गणेश की छाप दिखेगी।

मान्यता है कि जब मंदिर का ये स्वरूप नहीं था तब भी यहां भक्तों की भारी भीड़ जुटती थी। यहां आने वाले भक्त सिर्फ गणपति बप्पा के दर्शन के लिए नहीं आते थे, बल्कि विनायक के सबसे बड़े भक्त मोरया का आशीर्वाद लेने भी आते थे। भक्तों के लिए गणपति और मोरया अब एक ही हो गए थे।

पुणे शहर से 15 किलोमीटर दूर बसा चिंचवाड़ गांव मोरया गोसावी के नाम से मशहूर है। मोरया गोसावी मंदिर इस गांव की शान माना जाता है। गणेश के सबसे बड़े भक्त बनकर मोरया गोसावी ने गणेश का वरदान पाया और गणेश के नाम के साथ अपना नाम हमेशा के लिए जोड़कर सिद्धि प्राप्त कर ली। यही वजह है की चिंचवाड़ गावों में  लोग जब एक दूसरे से मिलते हैं तो वह नमस्ते नहीं बल्कि मोरया कहते हैं।

मोरया गोसावी को सबसे बड़े गणेश भक्त का दर्जा यूं ही नहीं मिल गया था। कहा जाता है कि 1375 में मोरया गोसावी का जन्म भी भगवान गणेश की कृपा से ही हुआ था। उनके पिता वामनभट और मां पार्वतीबाई की भक्ति से खुश होकर भगवान ने कहा था कि वो उनके यहां पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। यही वजह है कि मोरया गोसावी का जन्मस्थल भी गणेश भक्तों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।

बचपन से ही मोरया गोसावी गणेश भक्ति में कुछ इस तरह रम गए कि उन्हें दीन-दुनिया का कुछ ख्याल ही नहीं रहता। थोड़े बड़े हुए तो मोरगांव के मयूरेश्वर मंदिर में गणपति के दर्शन के लिए जाने लगे। ये सिलसिला तब तक चला जब तक कि स्वयं भगवान गणेश ने उन्हें स्वयं अपना प्रतिरूप नहीं सौंप दिया। तबसे गणपति के भक्त चिंचवाड़ के गजानन को मयूरेश्वर गणपति का अंश मानते हैं। साल में दो बार भगवान गणेश को पालकी में लेकर मयूरेश्वर मंदिर जाते हैं, ताकि भगवान का अपने अंश से भेंट हो सके।

पुणे शहर से करीब 80 किलोमीटर दूर मोरगांव के मयूरेश्वर मंदिर की स्थापना कब और कैसे हुई, इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन इतना तय है कि मोरया गोसावी की भक्ति ने इस तीर्थ स्थल को सभी गणेश भक्तों के लिए अहम बना दिया है। मान्यता है कि अष्टविनायक के दर्शन की शुरुआत भी मयूरेश्वर से होती है और अंत भी यहीं होता है। अष्टविनायक यानी 8 गणपति। ये आठ मंदिर महाराष्ट्र के अलग-अलग इलाकों में हैं।

ये हैं पुणे के मोरगांव का मयूरेश्वर मंदिर, अहमदनगर के सिद्धटेक का सिद्धिविनायक मंदिर, रायगढ़ के पाली का बल्लालेश्वर मंदिर, रायगढ़ के कपोली का वरदनायक मंदिर, पुणे के थेउर का चिंतामणि मंदिर, पुणे के ही लेनयाद्री का गिरिजात्मज मंदिर, पुणे के ओजर का विघ्नेश्वर मंदिर और पुणे के रंजनागांव का महागणपति मंदिर। कहते हैं कि इन आठों गणपति के दर्शन के बाद भक्त की हर मनोकामना पूरी हो जाती है। अष्टविनायक की ये यात्रा मयूरेश्वर मंदिर से शुरू होता है, इसीलिए इसे सर्वाद्य मंदिर कहते हैं।

मयूरेश्वर मंदिर परिसर में इस पेड़ के नीचे मोरया गोसावी की ये मूर्ति भक्ति की एक अनोखी कहानी कहती है।  बताया जाता है कि एक बार चिंचवाड़ से चलकर मोरया गोसावी यहां तक आ तो गए, लेकिन आगे का रास्ता बाढ़ की वजह से बंद हो चुका था। तब इसी पेड़ के नीचे बैठकर मोरया गोसावी ने मयूरेश्वर गणपति को याद किया और भगवान अपने भक्त को दर्शन देने यहां तक चले आए। यहां आने वाले भक्तों की जितनी श्रद्धा मयूरेश्वर गणपति में हैं, उतनी ही मोरया गोसावी में है। भक्त मोरया गोसावी को मयूरेश्वर गणपति का अवतार मानते हैं। भक्तों के मुताबिक यहां आकर उन्हें दोनों देवों के दर्शन हो जाते हैं, उन्हें मनचाही मुराद मिल जाती है।

कहते हैं कि मोरया गोसावी जी ने संजीवन समाधि ले ली थी, यानी जीते जी वो समाधि में लीन हो गए थे। भक्त मानते हैं कि आज भी मोरया गोसावी इन दोनों तीर्थस्थलों में मौजूद हैं। यही वजह है कि यहां गणपति के साथ-साथ मोरया की भी पूजा की जाती है। भक्त सच्चे मन से एक ही जयकारा लगाते हैं।

Copyrights from:- http://bit.ly/2v6vw3w

Friday, July 7, 2017

श्री हनुमान चालीसा अर्थ ||


श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
अर्थ- श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।


बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।
अर्थ- हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूं। आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सद्‍बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुखों व दोषों का नाश कार दीजिए।


जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥1॥
अर्थ- श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।

राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥
अर्थ- हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नहीं है।

कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥
अर्थ- आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।

हाथबज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेऊ साजै॥5॥
अर्थ- आपके हाथ में बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।

शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥
अर्थ- शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।

विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥
अर्थ- आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
अर्थ- आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में बसे रहते है।

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥
अर्थ- आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।

भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
अर्थ- आपने विकराल रूप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उद्‍देश्यों को सफल कराया।

लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥
अर्थ- - आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।

रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
अर्थ- श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥13॥
अर्थ- श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,  नारद, सारद सहित अहीसा॥14॥
अर्थ-  श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।

जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥15॥
अर्थ- यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥
अर्थ-  आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥
अर्थ- आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥
अर्थ-  जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुंचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥
अर्थ- आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुंह में रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥
अर्थ- संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।


राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसा रे॥21॥
अर्थ- श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता अर्थात् आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।

सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥
अर्थ- जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आनन्द प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं रहता।

आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हांक तें कांपै॥23॥
अर्थ- आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते है।

भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥
अर्थ- जहां महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहां भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।

नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥
अर्थ-  वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।

संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥
अर्थ-  हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।

सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥
अर्थ-  तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।

और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥
अर्थ- जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।

चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥
अर्थ-  चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है, जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।

साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥
अर्थ- हे श्री राम के दुलारे! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥31॥
अर्थ- आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।

1.) अणिमा- जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में प्रवेश कर जाता है।
2.) महिमा- जिसमें योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।
3.) गरिमा- जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।
4.) लघिमा- जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।
5.) प्राप्ति- जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।
6.) प्राकाम्य- जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है।
7.) ईशित्व- जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य हो जाता है।
8.) वशित्व- जिससे दूसरों को वश में किया जाता है।

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥
अर्थ- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥
अर्थ- आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।

अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥
अर्थ- अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलाएंगे।

और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥
अर्थ- हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।

संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥
अर्थ-  हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।

जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥
अर्थ-  हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझ पर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।

जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बंदि महा सुख होई॥38॥
अर्थ- जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परमानन्द मिलेगा।

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥
अर्थ- भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।

तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मंह डेरा॥40॥
अर्थ- हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।



पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सूरभूप॥
अर्थ-  हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनंद मंगलों के स्वरूप हैं। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।


क्या है गुरु पूर्णिमा का महत्व, कैसे हुई इसकी शुरुआत ||

मंत्र :- 

गुरुः ब्रह्मा : गुरु ही हैं ।
गुरुर विष्णु : गुरु ही विष्णु हैं ।
गुरुर देवो महेश्वरः : गुरु ही महेश्वर यानि शिव हैं ।
गुरु साक्षात परब्रह्म : परब्रह्म, जोकि श्रिष्टि रचयिता हैं और सभी देवो में श्रेष्ठ हैं, गुरु उनके समान हैं ।
तस्मै श्री गुरुवे नमः : हम उन गुरु को हमारा नमन है ।


गुरू-पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है जो गुरुओं के सम्मान के लिए है। यह महान पर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। कहते हैं जैसे सूर्य की गर्मी से तपती भूमि को बारिश से शीतलता और फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरु गुरु मानव को अज्ञानता के अंधेरे से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है आैर भविष्य संवारता है इसलिए उनके सम्मान में ही आषाढ़ मास पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है।

क्या है मान्यता :- 
हिंदू धर्म में गुरू-पूर्णिमा का विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है।

ऐसे शुरु हुआ सम्मान :- 
प्राचीन काल में जब बच्चे गुरुकुल या गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाते थे। उस समय बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती थी। विद्या अध्ययन के बदले शिष्य गुरु पूर्णिमा के दिन वे श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करते थे। कहते हैं जिस प्रकार आषाढ़ की घटा बिना भेदभाव के सब पर जलवृष्टि कर जन-जन का ताप हरती है, उसी प्रकार विश्व के सभी गुरु अपने शिष्यों पर इस पावन दिन में आशीर्वाद की वर्षा करते हैं।

इस दिन का विशेष महत्व :-
आषाढ़ की पूर्णिमा के दो प्रभाग हैं। पहला यह कि यह पूर्णिमा सबसे बड़ी मानी जाती है। इस में चंद्र की कला तथा ग्रह-नक्षत्र विशेष संयोग लिए होते हैं। दूसरा यह कि इस दिन से श्रावण मास की शुरुआत होती है। शास्त्र में इस दिन का विशेष महत्व है, क्योंकि आषाढ़ी पूर्णिमा अवंतिका में अष्ट महाभैरव की पूजन परंपरा से भी जुड़ी है। इस दिन गुरुओं के चरणों के पूजन का भी विधान है। गुरु पद पूजन परंपरा का निर्वाह इसलिए करते है, ताकि बच्चों में बुद्धि वृद्धि हो।

Wednesday, July 5, 2017

माता सरस्वती की जन्म कथा ?

पुराणों में माता सरस्वती के बारे में भिन्न-भिन्न मत मिलते हैं। पुराणों में ब्रह्मा के मानस पुत्रों का जिक्र है लेकिन जानकारों के अनुसार सरस्वतीजी ब्रह्माजी की पुत्रीरूप से प्रकट हुईं ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है | एक अन्य पौराणिक उल्लेख अनुसार देवी महालक्ष्मी (लक्ष्मी नहीं) से जो उनका सत्व प्रधान रूप उत्पन्न हुआ, देवी का वही रूप सरस्वती कहलाया। हालांकि इस पर शोध किये जाने की जरूरत है कि माता सरस्वती किसकी पुत्री थी।


सरस्वती उत्पत्ति कथा  : हिन्दू धर्म के दो ग्रंथों 'सरस्वती पुराण' (यह पुराण 18 पुराणों में शामिल नहीं है) और 'मत्स्य पुराण' में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का सरस्वती से विवाह करने का प्रसंग है जिसके फलस्वरूप इस धरती के प्रथम मानव 'मनु' का जन्म हुआ। कुछ विद्वान मनु की पत्नीं शतरूपा को ही सरस्वती मानते हैं। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वह संगीत की देवी भी हैं। वसंत पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं।  

मत्स्य पुराण में यह कथा थोड़ी सी भिन्न है। मत्स्य पुराण अनुसार ब्रह्मा के पांच सिर थे। कालांतर में उनका पांचवां सिर शिवजी ने काट दिया था जिसके चलते उनका नाम कापालिक पड़ा। एक अन्य मान्यता अनुसार उनका ये सिर काल भैरव ने काट दिया था। 

कहा जाता है जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो वह इस समस्त ब्रह्मांड में अकेले थे। ऐसे में उन्होंने अपने मुख से सरस्वती, सान्ध्य, ब्राह्मी को उत्पन्न किया। सरवस्ती के प्रति आकर्षित होने लगे और लगातार उन पर अपनी दृष्टि डाले रखते थे। ब्रह्मा की दृष्टि से बचने के लिए सरस्वती चारों दिशाओं में छिपती रहीं लेकिन वह उनसे नहीं बच पाईं। सरस्वती से विवाह करने के पश्चात सर्वप्रथम स्वयंभु मनु को जन्म दिया। ब्रह्मा और सरस्वती की यह संतान मनु को पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला मानव कहा जाता है। लेकिन एक अन्य कथा के अनुसार स्वायंभुव मनु ब्रह्मा के मानस पुत्र थे।