Friday, June 29, 2018

भगवान सूर्य ने स्वयं कहा है, यहां पूजन करने वाले के निकट नहीं आएंगे दुख और दरिद्रता.

अरुणादित्य की कथा :- 

कश्यप ऋषि की पत्नी विनता अपनी सपत्नी (सौत) को गोद में बच्चा खेलाते देखकर स्वयं भी बच्चा खेलाने की अभिलाषा न त्याग सकी; अत: उसका जो अंडा अभी पूर्ण विकसित भी नहीं हुआ था, उसको उसने असमय फोड़ दिया। इसलिए उससे विकलांग शिशु पैदा हुआ और वह जंघा रहित होने के कारण ‘अनूरु’ एवं अंडा फोड़ देने से मां के प्रति क्रोधवश अरुण (लाल) होने से अरुण कहलाया।


आगे चलकर अरुण ने काशी में भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। बहुत दिनों तक उसने जल और वायु मात्र पर रहकर दिन-रात बड़े मनोयोग पूर्वक सूर्य की आराधना की। उसकी तपस्या के तेज से तीनों लोक कांप उठे तथा इंद्र का सिंहासन डगमगाने लगा। सभी देवता मिल कर भगवान् सूर्य के पास गए और कहा-‘‘प्रभो! आप लोक कल्याण के लिए शीघ्र जाकर तथा अरुण को वर देकर उन्हें तपस्या से विरत करें, अन्यथा उनकी तपस्या के तेज से तीनों लोक दहक उठेंगे।’’

भगवान् सूर्य विनतानंदन अरुण के समक्ष प्रकट हुए और कहा, ‘‘पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारी तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हैं। आज से काशी में तुम्हारे द्वारा आराधित मेरी मूर्त अरुणादित्य के नाम से प्रसिद्ध होगी।’’

इसके अतिरिक्त भगवान् सूर्य ने अरुण को और भी अनेक वर दिए। भगवान् सूर्य ने कहा, ‘‘अरुण! तुम जगत के हित के लिए अंधकार का नाश करते हुए सदा मेरे रथ पर सारथि के स्थान पर बैठा करो। जो मनुष्य काशी में विश्वेश्वर से उत्तर में तुम्हारे  द्वारा स्थापित अरुणादित्य नामक मेरी मूर्त की पूजा-अर्चना करेंगे; दुख, दरिद्रता और पातक उनके निकट भी नहीं आएंगे। वह न विविध प्रकार की व्याधियों से आक्रांत होंगे और न ही नाना प्रकार के उपद्रवों से पीड़ित होंगे।’’

येऽर्चयिष्यन्ति सततमरुणादित्यसंज्ञकम्।
मामत्र तेषां नो दुखं न दारिद्रयं न पातकम्।।

ऐसा कहकर भगवान् सूर्य अरुण को अपने रथ पर बैठा कर अपने साथ ले गए। जो मनुष्य प्रात:काल उठकर प्रतिदिन सूर्य सहित अरुण को नमस्कार करता है, उसे दुख और भय स्पर्श भी नहीं कर सकते। अरुणादित्य काशी में पाटन-दरवाजा मोहल्ले के त्रिलोचन-मंदिर में स्थित हैं। अरुणादित्य के सेवकों को शोकाग्रि जनित दाह भी कभी नहीं होता है।

पूषा धनंजयो धाता सुषेण: सुरुचिस्तथा।
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी।।
पूषा तोषाय मेभूयात्सर्वपापापनोदनात्।
सहस्रकरसंवीतस्समस्ताशान्तरान्तर:।।

आश्विन मास में पूषा नामक आदित्य गौतम ऋषि, घृताची अप्सरा, सुरुचि गन्धर्व, धनंजय नाग, सुषेण यक्ष तथा धाता राक्षस के साथ परिभ्रमण करते हैं। सहस्रों रश्मियों से आवृत भगवान् पूषा मेरे सभी पापों का नाश करके मुझे संतोष प्रदान करें। पूषा आदित्य छ: सहस्र रश्मियों से तपते हैं तथा उनका अलक्तक वर्ण है।

Source :- https://bit.ly/2yTeCvG

मंगलवार को भगवान हनुमान की आराधना.

मंगलवार को भगवान हनुमान का दिन होता है। मान्यता है कि इस दिन अगर सच्चे मन से हनुमान की पूजा की जाए तो हर मनोकामना पूरी होती है।


मंगलवार को भगवान हनुमान का दिन होता है। मान्यता है कि इस दिन अगर सच्चे मन से हनुमान की पूजा की जाए तो हर मनोकामना पूरी होती है। हम आपको बता रहे हैं कैसे आज के दिन करें भगवान हनुमान की आराधना-

सुबह जगने के बाद और रात्रि में सोने से पहले हनुमान चालीसा या हनुमान मंत्र का जाप करे।
कोशिश करें कि आज के दिन मांसाहारी खाना और मादक पेय त्याग दें।

मंगलवार को हनुमान जी का व्रत करना चाहिए।

हर मंगलवार को हनुमान मंदिर में लाल मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाना चाहिए उसके बाद जनेऊ पहनानी चाहिए फिर उन्हें गुड चन्ना या केले का प्रसाद चढ़ाकर आराधना करें।

source :- https://bit.ly/2MAjt7b

माँ दुर्गा की उत्पत्ति की कहानी और जानिए, महाभारत से है क्‍या है नवरात्र का नाता?

माँ दुर्गा को अदि शक्ति, शक्ति, भवानी, और जगदम्बा जैसे कई नामों से पूजते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ दुर्गा का जन्म राक्षसों का नाश करने के लिए हुआ था। यही कारण हैं कि हम नवरात्र में माँ दुर्गा की पूजा करते हैं। इन दिनों में माता की पूजा और भक्ति का फल जल्दी मिलता है। इसका कारण यह माना जाता है कि मां नवरात्र के नौ दिनों में पृथ्वी पर आकर भक्तों के बीच रहती हैं। इसलिए मां को खुश करने के लिए भक्त विधि-विधान पूर्वक आरती, पूजा एवं दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं।


कथा के अनुसार महिषासुर का जन्म पुरुष और महिषी (भैंस) के संयोग से हुआ था। इसलिए उसे महिषासुर कहा जाता था। वह अपनी इच्छा के अनुसार भैंसे व इंसान का रूप धारण कर सकता था। उसने अमर होने की इच्छा से ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। ब्रह्माजी उसके तप से प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और इच्छानुसार वर मांगने को कहा।

महिषासुर ने उनसे अमर होने का वर मांगा। ब्रह्माजी ने कहा जन्मे हुए जीव का मरना तय होता है। महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- आप मुझे ये आशीर्वाद दें कि देवता, असुर और मानव कोई भी मुझे न मार पाए। किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु हो। ब्रह्माजी 'एवमस्तु’ यानी ऐसा ही हो कहकर अपने लोक चले गए। वरदान पाकर महिषासुर ने तीनो लोकों पर आतंक मचा दिया। फिर उसने देवताओं के इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। जिससे सारे देवता परेशान हो गए। इसके चलते सभी देवता ने देवी का आवाहन किया और तब देवी की उत्पत्ति हुई। कहा जाता है कि देवी का युद्ध महिषासुर से नौ दिनों तक चला था। और नवे दिन माँ ने महिषासुर वध किया था।

महाभारत से ताल्‍लुक ऐसी ही एक और कहानी है महाभारत से भी आती है। महाभारत के युद्ध से पहले भगवान कृष्ण ने अर्जुन को माँ वैष्णो की गुफा में पूजा करने को कहा था। ऐसा कहा जाता है कि नवरात्र के आखरी दिन पांडवों ने अपनी पहचान बता दी थी। यह उनके वनवास का आखिरी समय था। इसी दिन उन्होंने शमी के पेड़ से अपने सारे हथियार निकाल लिए जो उन्हों ने राजा विराट के महल में प्रवेश शमी के पेड़ के नीचे छुपाये थे। इसीलिए विजया दश्मी के दिन शमी की पत्तियों का भेट की जाती हैं जिससे जीत और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

Source :- https://bit.ly/2KiJds8

Thursday, June 28, 2018

भगवान विष्णु के बारे में 3 दिलचस्प बातें!!

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु पुरेके ब्रह्माण्ड के देवता माने जाते है । पौराणिक कथाओं में भगवान विष्णु के दो चेहरो के बारे में बात कही जाती है। एक तरफ, वह शांत सुखद और कोमल के रूप में दिखाई देते है। एक तरफ जहाँ वह शेषनाग ( सांपों के राजा) पर एक आरामदायक आसन में बैठे है और वंही दूसरी तरफ उनका चेहरा कुछ अलग प्रतीत होता है।


”शान्ताकारं भुजगशयनं”

भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर पहली बार हर किसी के मन में आता है कि एक सांप के राजा के ऊपर बैठे इतना शांत कैसे हो सकते है ? तत्काल जवाब आता है कि वह भगवान है और उनके के लिए यह सब संभव है|

1.) शेषनाग पर लेटे हुए भगवान विष्णु का राज क्या है?
देखा जाये तो इंसान के जीवन का हर पल कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से संबंधित है। इनसब मे सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्यों में शामिल परिवार, सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारी है , इन कर्तव्यों को पूरा करने के लिए बहुत प्रयासो के साथ कई समस्याओं से गुजरना होता है जोकी शेषनाग की तरह बहुत डरावने होते है और चिंता पैदा करते है| भगवान विष्णु का शांत चेहरा हमें प्रेरित करता है की कठिन समय में शांती और धैय के साथ रहना चाहिए और समस्याओं के प्रति शांत दृष्टिकोण ही हमें सफलता हांसिल करवा सकता है| यही कारण है भगवान विष्णु सांपो के राजा के ऊपर लेटते हुए भी अत्तयंत शांत व् मुस्कुराते हुए प्रतीत होते हैं|

2.) आखिर क्यों भगवान विष्णु का नाम “नारायण” और “हरि ” है ?
हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु के प्रधान भक्त- नारद भगवान विष्णु का नाम जपने के लिए नारायण शब्द क। प्रयोग किया, उसी समय से भगवान विष्णु के सभी नामों में जैसे अनन्तनरायण, लक्ष्मीनारायण, शेषनारायण इन सभी में विष्णु का नाम नारायण जोड़कर लिया जाता है।

कई लोगों को मानना है कि भगवान विष्णु को नारायण के रूप में जाना जाता है लेकिन बहुत कुछ इसके पीछे के रहस्य को भी जानते हैं। एक प्राचीन पौराणिक कथा के अनुसार, जल भगवान विष्णु के पैरों से पैदा हुआ था और इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया की भगवान विष्णु के पैर से बाहर आई गंगा नदी का नाम विष्णुपदोदकी ‘ के नाम से जाना जाता है|

इसके अलावा, जल “नीर” या ‘ नर ‘ नाम से जाना जाता है और भगवान विष्णु भी पानी में रहते हैं, इसलिए, ‘ नर ‘ से उनका नाम नारायण बना, इसका मतलब है पानी के अंदर रहने वाले भगवान।

भगवान विष्णु को हरि नाम से  भी जाना जाता है हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, हरि का मतलब हरने वाला या चुराने वाला इसलिए कहा जाता है “हरि हरति पापणि”  इसका मतलब है हरि भगवान है जो जीवन से पाप और समस्याओं को  समाप्त करते हैं भगवान हमेशा माया के चंगुल से वातानुकूलित आत्मा का उद्धार करने के लिए  योजना बनाते रहते हैं ।

3.) आखिर क्यों है भगवान विष्णु के चार हाथ ?
प्राचीनकाल में जब भगवान शंकर के मन में सृस्टि रचने का उपाए आया तो सबसे पहले उन्होनें अपनी आंतरदृस्टि से भगवान विष्णु को पैदा किया और उनको चार हाथ दिए जो उनकी शक्तिशाली और सब व्यापक प्रकृति का संकेत देते है उनके सामने के दो हाथ भौतिक अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते है, पीठ पर दो हाथ आध्यात्मिक दुनिया में अपनी उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं। विष्णु के चार हाथ अंतरिक्ष की चारों दिशाओं पर प्रभुत्व व्यक्त करते हैं और मानव जीवन के चार चरणों और चार आश्रमों के रूप का प्रतीक है :1. ज्ञान के लिए खोज (ब्रह्मचर्य ) 2. पारिवारिक जीवन (गृहस्थ) 3. वन में वापसी (वानप्रस्थ-) 4. संन्यास.

Source :- https://bit.ly/2KhdS9a

Wednesday, June 27, 2018

कुरुक्षेत्र को ही क्यों चुना श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए ?

महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुक्षेत्र में युद्ध लड़े जाने का फैसला भगवान श्री कृष्ण का था। लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है।

Radhe Maa

जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है। एक दूसरे को मरते देखकर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।

एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा-तू ही क्यों न बन्द कर आवे? मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।

इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया।

महाभारत की यह कथा इंगित करती है की शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए ऐसी भूमि में ही निवास करना चाहिए जहाँ शुभ विचारों और शुभ कार्यों का समावेश रहा हो।

हम आपको ऐसी ही एक कहानी और सुनाते है जो की श्रवण कुमार के जीवन से सम्बंधित है।

जब श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता को कांवर से उतारकर चलाया पैदल :

श्रवणकुमार के माता-पिता अंधे थे। वे उनकी सेवा पूरी तत्परता से करते, किसी प्रकार का कष्ट न होने देते। एक बार माता-पिता ने तीर्थ यात्रा की इच्छा की। श्रवण कुमार ने काँवर बनाकर दोनों को उसमें बिठाया और उन्हें लेकर तीर्थ यात्रा को चल दिया। बहुत से तीर्थ करा लेने पर एक दिन अचानक उसके मन में यह भाव आये कि पिता-माता को पैदल क्यों न चलाया जाय? उसने काँवर जमीन पर रख दी और उन्हें पैदल चलने को कहा। वे चलने तो लगे पर उन्होंने साथ ही यह भी कहा-इस भूमि को जितनी जल्दी हो सके पार कर लेना चाहिए। वे तेजी से चलने लगे जब वह भूमि निकल गई तो श्रवणकुमार को माता-पिता की अवज्ञा करने का बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने पैरों पड़ कर क्षमा माँगी तथा फिर काँवर में बिठा लिया।

उसके पिता ने कहा-पुत्र इसमें तुम्हारा दोष नहीं। उस भूमि पर किसी समय मय नामक एक असुर रहता था उसने जन्मते ही अपने ही पिता-माता को मार डाला था, उसी के संस्कार उस भूमि में अभी तक बने हुए हैं इसी से उस क्षेत्र में गुजरते हुए तुम्हें ऐसी बुद्धि उपजी।

Source :- https://bit.ly/2tGlqXO

Monday, June 25, 2018

गणेशजी का स्त्री रुप ||

गणेशजी के स्त्री रुप का नाम है विनायकी

देवों के देव महादेव और माता पार्वती के पुत्र गणेशजी के स्त्री रुप का वर्णन पुराणों में भी किया गया है. विनायक गणेश के इस स्त्री रुप को विनायकी के नाम से जाना जाता है.

धर्मोत्तर पुराण में गणेशजी का स्त्री रुप विनायकी का वर्णन किया गया है इसके अलावा वन दुर्गा उपनिषद में भी गणेश जी के स्त्री रूप का उल्लेख मिलता है, जिसे गणेश्वरी का नाम दिया गया है.


गणेशजी का स्त्री रुप – पुराणों में दर्ज एक कथा के अनुसार

दरअसल एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार अंधक नाम के दैत्य ने जबरन माता पार्वती को अपनी अर्धांगिनी बनाने की कोशिश की, ऐसे में मां पार्वती ने सहायता के लिए अपने पति शिव जी को बुलाया.

अपनी पत्नी की इस दैत्य से रक्षा करने के लिए भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया और उसके आर-पार कर दिया. लेकिन अंधक की मृत्यु नहीं हुई बल्कि त्रिशूल के प्रहार से उसके रक्त की एक-एक बूंद से राक्षसी अंधका का निर्माण होता चला गया.

यह देख माता पार्वती को एक बात तो समझ में आ गई थी और वो ये कि हर एक दैवीय शक्ति के भीतर दो तत्व मौजूद होते हैं. पहला पुरुष तत्व जो उसे मानसिक रूप से सक्षम बनाता है और दूसरा स्त्री तत्व, जो उसे शक्ति प्रदान करता है.

इसके बाद माता पार्वती ने उन सभी देवियों को आमंत्रित किया जो शक्ति का ही रूप हैं. उनके बुलाने पर हर दैवीय ताकत स्त्री रुप में वहां उपस्थित हो गईं और अंधक दैत्य के खून गिरने से पहले ही अपने भीतर समा लिया जिसके कारण राक्षसी अंधका का उत्पन्न होना कम हो गया.

लेकिन फिर भी अंधक के गिरते हुए रक्त को खत्म करना जब संभव नहीं हो रहा था तब भगवान गणेश को मैदान में उतरना पड़ा और वो भी अपने स्त्री रुप में.

विनायकी के रुप में प्रकट होकर गणेशजी ने अंधक का सारा रक्त पी लिया. इस तरह से गणेश समेत सभी दैवीय शक्तियों के स्त्री रुप की मदद से अंधका का सर्वनाश संभव हो सका.

गौरतलब है कि गणेशजी का स्त्री रुप विनायकी को सबसे पहले 16वीं सदी में पहचाना गया था. उनका यह स्वरुप देखने में बिल्कुल माता पार्वती जैसा ही था. अगर कोई अंतर था तो वो सिर्फ सिर का था क्योंकि गणेश जी की तरह ही विनायकी का सिर भी गज के सिर से बना हुआ था.

Source :-https://bit.ly/2yOWq6m

Radhe Maa Ji spends quality time with Cancer Patients at Chikuwadi.


Cancer Patient Association got in touch with Mamtamai Shree Radhe Maa Ji. Maa being a children lover didn’t hesitate once and invited all of them to Chikuwadi, where she currently resides. She spent the entire day with them and made them feel at home by giving them immense love and warmth. Around her, the cancer patient felt appreciated and joyous. She blessed each one of them and prayed that may God give them the strength to deal with all obstacles that come their way. What Maa shares with children is an eternally beautiful bond. She offered them food, drinks and 550 shawls. 

Also, at that day Chief Minister, Devendra Fadnavis’s wife Amruta Devendra Fadnavis was present. She sang a melodious bhakti geet song, Mandir Tu Tuhi Shivaya, which was shot at Chikuwadi itself. 

Sooryavanshi the composer of the song thanked Radhe Maa Ji and Amruta Devendra Fadnavis Ji for their presence.

पावन अमरनाथ यात्रा की शिव-पार्वती कथा

देवी पार्वती ने देवों के देव महादेव से पूछा, ऐसा क्यों है कि आप अजर हैं, अमर हैं लेकिन मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरूप में आकर, फिर से बरसों तप के बाद आपको प्राप्त करना होता है । जब मुझे आपको पाना है तो मेरी तपस्या और इतनी कठिन परीक्षा क्यों? आपके कंठ में पडी़ नरमुंड माला और अमर होने के रहस्य क्या हैं?


महादेव ने पहले तो देवी पार्वती के उन सवालों का जवाब देना उचित नहीं समझा, लेकिन पत्नीहठ के कारण कुछ गूढ़ रहस्य उन्हें बताने पडे़। शिव महापुराण में मृत्यु से लेकर अजर-अमर तक के कर्इ प्रसंग हैं, जिनमें एक साधना से जुडी अमरकथा बडी रोचक है। जिसे भक्तजन अमरत्व की कथा के रूप में जानते हैं।

हर वर्ष हिम के आलय (हिमालय) में अमरनाथ, कैलाश और मानसरोवर तीर्थस्थलों में लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा करते हैं, क्यों? यह विश्वास यूं ही नहीं उपजा। शिव के प्रिय अधिकमास, अथवा आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण मास तक की पूर्णिमा के बीच अमरनाथ की यात्रा भक्तों को खुद से जुडे रहस्यों के कारण और प्रासंगिक लगती है।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अमरनाथ की गुफा ही वह स्थान है जहां भगवान शिव ने पार्वती को अमर होने के गुप्त रहस्य बतलाए थे, उस दौरान वहां उन दो दिव्य ज्योतियों’के अलावा तीसरा कोर्इ प्राणी नहीं था। न महादेव का नंदी और नहीं उनका नाग, न सिर पर गंगा और न ही गणपति, कार्तिकेय….!

गुप्त स्थान की तलाश में महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले छोड़ा, नंदी जिस जगह पर छूटा, उसे ही पहलगाम कहा जाने लगा। अमरनाथ यात्रा यहीं से शुरू होती है। यहां से थोडा़ आगे चलने पर शिवजी ने अपनी जटाओं से चंद्रमा को अलग कर दिया, जिस जगह ऐसा किया वह चंदनवाड़ी कहलाती है। इसके बादगंगा जी को पंचतरणी में और कंठाभूषण सर्पों को शेषनाग पर छोड़ दिया, इस प्रकार इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा।

अमरनाथ यात्रा में पहलगाम के बाद अगला पडा़व है गणेश टॉप, मान्यता है कि इसी स्थान पर महादेव ने पुत्र गणेश को छोड़ा। इस जगह को महागुणा का पर्वत भी कहते हैं। इसके बाद महादेव ने जहां पिस्सू नामक कीडे को त्यागा, वह जगह पिस्सू घाटी है।

Sorce :- https://bit.ly/2hZomtW

Saturday, June 23, 2018

3 पौराणिक कहानियां - भगवान विष्णु ने लिया राम अवतार ||

तीन पौराणिक प्रसंग बता रहे है जो भगवान विष्णु के श्री राम के रूप में अवतार लेने से सम्बंधित है।


पहला प्रसंग- जय-विजय को दिया था सनकादि मुनि ने श्राप

एक बार सनकादि मुनि भगवान विष्णु के दर्शन करने वैकुंठ आए। उस समय वैकुंठ के द्वार पर जय-विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दे रहे थे। जब सनकादि मुनि द्वार से होकर जाने लगे तो जय-विजय ने हंसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक लिया। क्रोधित होकर सनकादि मुनि ने उन्हें तीन जन्मों तक राक्षस योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया। क्षमा मांगने पर सनकादि मुनि ने कहा कि तीनों ही जन्म में तुम्हारा अंत स्वयं भगवान श्रीहरि करेंगे।

इस प्रकार तीन जन्मों के बाद तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। पहले जन्म में जय-विजय ने हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष के रूप में जन्म लिया। भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का तथा नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध कर दिया। दूसरे जन्म में जय-विजय ने रावण व कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। इनका वध करने के लिए भगवान विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा। तीसरे जन्म में जय-विजय शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्मे। इस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण ने इनका वध किया।

दूसरा प्रसंग- मनु-शतरूपा को भगवान विष्णु ने दिया था वरदान

मनु और उनकी पत्नी शतरूपा से ही मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत ही पवित्र थे। वृद्ध होने पर मनु अपने पुत्र को राज-पाठ देकर वन में चले गए। वहां जाकर मनु और शतरूपा ने कई हजार साल तक भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और वर मांगने के लिए कहा। मनु और शतरूपा ने श्रीहरि से कहा कि हमें आपके समान ही पुत्र की अभिलाषा है।

उनकी इच्छा सुनकर श्रीहरि ने कहा कि संसार में मेरे समान कोई और नहीं है। इसलिए तुम्हारी अभिलाषा पूरी करने के लिए मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा। कुछ समय बाद आप अयोध्या के राजा दशरथ के रूप में जन्म लेंगे, उसी समय मैं आपका पुत्र बनकर आपकी इच्छा पूरी करूंगा। इस प्रकार मनु और शतरूपा को दिए वरदान के कारण भगवान विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा।

तीसरा प्रसंग- नारद मुनि को हो गया था घमंड

देवर्षि नारद को एक बार इस बात का घमंड हो गया कि कामदेव भी उनकी तपस्या और ब्रह्मचर्य को भंग नहीं कर सके। नारदजी ने यह बात शिवजी को बताई। देवर्षि के शब्दों में अहंकार भर चुका था। शिवजी यह समझ चुके थे कि नारद अभिमानी हो गए हैं। भोलेनाथ ने नारद से कहा कि भगवान श्रीहरि के सामने अपना अभिमान इस प्रकार प्रदर्शित मत करना। इसके बाद नारद भगवान विष्णु के पास गए और शिवजी के समझाने के बाद भी उन्होंने श्रीहरि को पूरा प्रसंग सुना दिया। नारद भगवान विष्णु के सामने भी अपना घमंड प्रदर्शित कर रहे थे।

तब भगवान ने सोचा कि नारद का घमंड तोड़ना होगा, यह शुभ लक्षण नहीं है। जब नारद कहीं जा रहे थे, तब रास्ते में उन्हें एक बहुत ही सुंदर नगर दिखाई दिया, जहां किसी राजकुमारी के स्वयंवर का आयोजन किया जा रहा था। नारद भी वहां पहुंच गए और राजकुमारी को देखते ही मोहित हो गए। यह सब भगवान श्रीहरि की माया ही थी।

राजकुमारी का रूप और सौंदर्य नारद के तप को भंग कर चुका था। इस कारण उन्होंने राजकुमारी के स्वयंवर में हिस्सा लेने का मन बनाया। नारद भगवान विष्णु के पास गए और कहा कि आप अपना सुंदर रूप मुझे दे दीजिए, जिससे कि वह राजकुमारी स्वयंवर में मुझे ही पति रूप में चुने। भगवान ने ऐसा ही किया, लेकिन जब नारद मुनि स्वयंवर में गए तो उनका मुख वानर के समान हो गया। उस स्वयंवर में भगवान शिव के दो गण भी थे, वे यह सभी बातें जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर यह सब देख रहे थे।

जब राजकुमारी स्वयंवर में आई तो बंदर के मुख वाले नारदजी को देखकर बहुत क्रोधित हुई। उसी समय भगवान विष्णु एक राजा के रूप में वहां आए। सुंदर रूप देखकर राजकुमारी ने उन्हें अपने पति के रूप में चुना लिया। यह देखकर शिवगण नारदजी की हंसी उड़ाने लगे और कहा कि पहले अपना मुख दर्पण में देखिए। जब नारदजी ने अपने चेहरा वानर के समान देखा तो उन्हें बहुत गुस्सा आया। नारद मुनि ने उन शिवगणों को राक्षस योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया।

शिवगणों को श्राप देने के बाद नारदजी भगवान विष्णु के पास गए और क्रोधित होकर उन्हें बहुत भला-बुरा कहने लगे। माया से मोहित होकर नारद मुनि ने श्रीहरि को श्राप दिया कि- जिस तरह आज मैं स्त्री के लिए व्याकुल हो रहा हूं, उसी प्रकार मनुष्य जन्म लेकर आपको भी स्त्री वियोग सहना पड़ेगा। उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। भगवान विष्णु ने कहा-ऐसा ही हो और नारद मुनि को माया से मुक्त कर दिया। तब नारद मुनि को अपने कटु वचन और व्यवहार पर बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने भगवान श्रीहरि से क्षमा मांगी।

भगवान श्रीहरि ने कहा कि- ये सब मेरी ही इच्छा से हुआ है अत: तुम शोक न करो। उसी समय वहां भगवान शिव के गण आए, जिन्हें नारद मुनि ने श्राप दिया था। उन्होंने नारद मुनि ने क्षमा मांगी। तब नारद मुनि ने कहा कि- तुम दोनों राक्षस योनी में जन्म लेकर सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य रूप में तुम्हारा वध करेंगे और तुम्हारा कल्याण होगा।

नारद मुनि के इन्हीं श्रापों के कारण उन शिव गणों ने रावण व कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया और श्रीराम के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु को स्त्री वियोग सहना पड़ा।

Soruce :- https://bit.ly/2K5SHGT

Friday, June 22, 2018

जानिए बजरंग-बली को क्यों कहते हैं हनुमान?

हनुमान जी शक्ति और बुद्धी के देवता कहे जाते हैं, किसी भी मुसीबत में लोग उन्हीं को याद करते हैं। भगवान शिवजी के 11वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान माने जाते हैं। बाल्मिकी की रामायण के अनुसार इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमानजी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। ऐसा अनुमान है कि हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे भारत देश में आज के झारखंड राज्य के गुमला जिले के आंजन नाम के छोटे से पहाड़ी गाँव के एक गुफ़े में हुआ था।इन्हें बजरंगबली के रूप में जाना जाता है क्योंकि इनका शरीर एक वज्र की तरह था। वे पवन-पुत्र के रूप में जाने जाते हैं| वायु अथवा पवन (हवा के देवता) ने हनुमान को पालने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।


कुछ पौराणिक कथाओं में हुनमान जी को वानर का वंशज कहा गया है जिसके कारण ही विराट नगर (राजस्थान) के वज्रांग मन्दिर में उनके वानर रूप की पूजा की जाती है।परन्तु गोभक्त महात्मा रामचन्द्र वीर ने एक ऐसा मंदिर बनावाया जिसमें हनुमान जी की बिना बन्दर वाले मुख की मूर्ति स्थापित की है। रामचन्द्र वीर ने हनुमान जी जाति वानर बताई है, शरीर नहीं।वीर के हिसाब से हुनुमान जी ने लंका-दहन करने के लिए वानर रूप धरा था।

ठुड्डी यानी हनु टूट गई

हनुमान जी को गुस्सा नहीं आता है इसलिए जो लोग बहुत ज्यादा गुस्सा करते हैं उन्हें हनुमान जी की उपासना करने को कहा जाता है। पुराणों के  मुताबिक सूर्य को फल समझकर जब हनुमान जी खाने जा रहे थे तो इंद्र ने उन पर वज्र से पहाड़ किया जिसके कारण उनकी ठुड्डी यानी हनु टूट गई इस कारण ही उन्हें हनुमान कहा जाता है। कुछ पुराणों में उल्लेख है कि भगवान हुनुमान जी आजीवन ब्रह्मचारी नहीं थे, उनकी पत्नी का नाम सुवरचला (Suvarchala) था जो कि सूर्य की पुत्री थी, क्योंकि सुवरचला ने योनी से जन्म नहीं लिया था इसलिए उनके स्वरूप का वर्णन कहीं नहीं मिलता।

वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष

रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है। इनका शरीर अत्यंत मांसल एवं बलशाली है। उनके कंधे पर जनेउ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभुषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पुँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।

Source :- https://bit.ly/2IiX1g8

Thursday, June 21, 2018

|| सभी देवताओं ने मिलकर मां दुर्गा को दिया था साकार रूप ||

|| सभी देवताओं ने मिलकर मां दुर्गा को दिया था साकार रूप ||


पुराणों में उल्लेख है कि यह तब की बात है जब राक्षसों के अत्याचार से देवता तंग आ गए थे। देवताओं ने सबसे पहले ब्रह्माजी की मदद की गुहार लगाई।

ब्रह्माजी ने यह जानकारी दी कि दैत्यराज की मृत्यु कैसे हो सकती है। उनके मुताबिक, दैत्यराज को यह वर प्राप्त है कि उसकी मृत्यु किसी कुंवारी कन्या के हाथ से होगी। इसके बाद सब देवताओं ने अपने सम्मिलित तेज से देवी के इन रूपों को प्रकट किया। विभिन्न देवताओं के तेज और प्रताप से ही देवी के विभिन्न अंग बने।

भगवान शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से मस्तक के केश, विष्णु के तेज से भुजाएं, इंद्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पौरों की अंगुलियां, प्रजापति के तेज से सारे दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौंहें, वायु के तेज से कान तथा अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न-भिन्न अंग बने हैं।

फिर शिवजी ने उस महाशक्ति को अपना त्रिशूल दिया, लक्ष्मीजी ने कमल का फूल, विष्णु ने चक्र, अग्नि ने शक्ति व बाणों से भरे तरकश, प्रजापति ने स्फटिक मणियों की माला, वरुण ने दिव्य शंख, हनुमानजी ने गदा, शेषनागजी ने मणियों से सुशोभित नाग, इंद्र ने वज्र, भगवान राम ने धनुष, वरुण देव ने पाश व तीर, ब्रह्माजी ने चारों वेद तथा हिमालय पर्वत ने सवारी के लिए सिंह प्रदान किया।

इसके अतिरिक्त समुद्र ने बहुत उज्ज्वल हार, कभी न फटने वाले दिव्य वस्त्र, चूड़ामणि, दो कुंडल, हाथों के कंगन, पैरों के नूपुर तथा अंगुठियां भेंट कीं। इन सब वस्तुओं को देवी ने अपनी अठारह भुजाओं में धारण किया।

मां दुर्गा इस सृष्टि की आद्य शक्ति हैं यानी आदि शक्ति हैं। पितामह ब्रह्माजी, भगवान विष्णु और भगवान शंकरजी उन्हीं की शक्ति से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन-पोषण और संहार करते हैं। अन्य देवता भी उन्हीं की शक्ति से शक्तिमान होकर सारे कार्य करते हैं।

Source :- https://bit.ly/2yHlRaj

कैसे हुई चक्र प्राप्ति भगवान विष्णु को ?

प्राचीनकाल के समय की बात है, दैत्य और दानव प्रबल और शक्तिशाली होकर सभी मनुष्यों और ऋषिगणों को पीड़ा देने लगे और धर्म का लोप करने लगे| इससे परेशान होकर सभी ऋषि और देवगण भगवान विष्णु के पास पहुंचे| विष्णु भगवान ने पूछा — देवताओं!! इस समय आपके आने का क्या कारण है ? में आप लोगों के किस काम आ सकता हूँ । नि: संकोच होकर आप अपनी समस्या बताइये |


देवताओं ने कहा – ‘हे देव रक्षक हरि’! हम लोग दैत्यों के अत्याचार से अत्यंत दुखी हैं| शुक्राचार्य की दुआ और तपस्य से बहुत ही प्रबल हो गए हैं । हम सभी देवतां और ऋषि उन पराक्रमी दैत्यों के सामने विवश होकर उनसे परास्त हो गए हैं|  स्वर्ग पर भी उन अत्त्यचारी दैत्यों का राज्य हो गया है । इस समय आप ही हमारे रक्षक हैं| इसलिए हम आपकी शरण में आये हैं| हे देवेश! आप हमारी रक्षा करें”|

भगवान विष्णु ने कहा- ऋषिगणों हम सभी के रक्षक भगवान शिव हैं| उन्हीं की कृपा से में धर्म की स्थापना तथा असुरों का विनाश करता हूँ| आप लोगों का दुख दूर करने के लिए में भी शिव महेश्वर की उपासना करूँगा| और मुझे पूरा विश्वास है की शिव शंकर जरुर प्रसन्न होंगे और आप लोगों का दुःख दूर करने के लिए कोई न कोई उपाय अवश्य ढूंढ लेंगे|

विष्णु भगवन ऋषिगणों और देवताओं से ऐसा कहकर शिवा की भक्ति करने के लिए कैलाश पर्वत चले गए| वंहा पहुंचकर वो विधिपूर्वक भगवान शिव की तपस्या करने लगे| श्री विष्णु भगवान नित्य कई हज़ार नामों से शिवा की स्तुति करते तथा प्रत्त्येक नामोच्चारण के साथ एक- एक कमल पुष्प आपने अराध्या को अर्पित करते| इस प्रकार भगवान विष्णु की यह उपासना कई वर्षों तक निर्बाध चलती रही| 

एक दिन भगवान शिवा परमात्मा ने श्री  विष्णु भक्ति की परीक्षा लेनी चाही| भगवान विष्णु हर बार की तरह एक सहस्त्र कमल पुष्प शिवजी को अर्पित करने के लिए लेकर आये| तब भगवान शिवा ने उसमे से एक कमल पुष्प कहीं छिपा दिया| शिव माया के द्वारा इस घटना का पता भगवान विष्णु को भी नहीं लगा| उन्होंने गिनती में एक पूछ पाकर उसकी खोज आरम्भ कर दी| श्री विष्णु ने पुरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर लिया परन्तु उन्हें कहीं वह पुष्प नहीं मिला| तदन्तर दृढ वृत्त का पालन करने वाले श्री विष्णु ने आपने एक कमलवत नेत्र ही उस कमल पुष्प के स्थान पर अर्पित कर दिया|

श्री भगवान विष्णु के इस त्याग से महेश्वर तत्काल प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर बोले– विष्णु!- में तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ| इछा अनुसार वार मांग सकते हो| में तुम्हारी प्रत्येक कामना पूरी करूँगा| तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ भी अदेय नहीं है|

श्री विष्णु ने कहा- ‘हे नाथ! आपसे में क्या कहूँ ? आप तोह स्वयं अन्तर्यामी हैं| ब्रह्माण्ड की कोई भी बात आपसे छिपी नहीं है| आप सब लकुछ जानते हैं । फिर भी अगर आप मेरे मुख से सुनना चाहते है तो सुनिए| प्रभु! दैत्यों ने समूचे संसार को प्रताड़ित और दुखी किया हुआ है| धर्म की मर्यादा और विशवास को नष्ट करने में लगे हैं और कर चुके हैं । धर्म की मर्यादा नष्ट हो चुकी है| अतः धर्म की स्थापना और ऋषिगणों और देवताओं के संरक्षण के लिए दैत्यों ल वध आवश्यक है| मेरे अस्त्र शास्त्र उन दैत्यों के विनाश में असमर्थ हैं| इसलिए में आपकी शरण में आया हूँ|

भगवान विष्णु की स्तुति सुनकर तब देवाधिदेव महादेव नें उन्हें आपने सुदर्शन चक्र दिया|  उस चक्र के द्वारा श्री हरी भगवान विष्णु ने बिना किसी श्रम के समस्त प्रबल दैत्यों का संहार कर डाला| सम्पूर्ण जगत का संकट समाप्त हो गया| देवता और ऋषिगण सब ही सुखी हो गए| इस प्रकार भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र के रूप में एक दिव्य आयुध की प्राप्ति भी हो गयी|

source :- https://bit.ly/2I8BaYW

Wednesday, June 20, 2018

भीम में कैसे आया 10 हज़ार हाथियों का बल?

पाण्डु पुत्र भीम के बारे में माना जाता है की उसमे दस हज़ार हाथियों का बल था जिसके चलते एक बार तो उसने अकेले ही नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था।  लेकिन भीम में यह दस हज़ार हाथियों का बल आया कैसे इसकी कहानी बड़ी ही रोचक है।


कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था।  पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया।

हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।

दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।

तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।

उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा।

Source :- https://bit.ly/2t0U5ya

Monday, June 18, 2018

क्यों की जाती है सर्वप्रथम गणेशजी की ही पूजा?

श्री गणेश करना जिसका अर्थ है किसी भी कार्य का शुभारम्भ.क्या कारण है की ब्रह्मा, शिव, विष्णु और अन्य कई दिग्गज भगवानों की बजाय सर्वप्रथम पूजा गणपति की ही क्यों होती है.



श्री गणेश के समतुल्य और कोई देवता नहीं हैं. इनकी पूजा किये बिना कोई भी मांगलिक कार्य, अनुष्ठान या महोत्सव की शुरुआत नहीं की जा सकती. गणेश जी, शिव भगवान एवं माता पार्वती की संतान हैं, इन्हें विघ्नहर्ता, भक्तों का दुःख दूर करने वाले, विद्या, बुद्धि व तेज़ बल प्रदान करने वाले के रूप में जाना जाता है.

शास्त्रों व पुराणों के अनुसार गणेश पूजन के लिए बुधवार का दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है. गणेश जी को लगभग 108 से भी अधिक नामो से जाना जाता है. किसी भी मांगलिक कार्य से पहले गणेश जी की पूजा करना भारतीय संस्कृति में शुभकारी बताया गया है. ऐसा माना गया है कि सर्वप्रथम किसी भी कार्य की शुरुआत से पहले यदि गणेश पूजन किया जाता है तो वह कार्य निश्चित ही सफल होता है. गणेश जी की सर्वप्रथम पूजा के विषय में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. गणेश भगवान के सर्वप्रथम पूजन की ऐसी ही एक प्रसिद्ध व लोकप्रिय कथा आप यहाँ पढ़ सकते हैं-

श्री गणेश के सर्वप्रथम पूजन की कथा

समस्त देवताओं के मन में इस बात पर विवाद उत्पन्न हुआ कि धरती पर किस देवता की पूजा समस्त देवगणों से पहले हो. अतः सभी देवता इस प्रश्न को सुनते ही स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने लगे. बात बढ़ते बढ़ते शस्त्र प्रहार तक आ पहुँची. तब नारद जी ने इस स्थिति को देखते हुए सभी देवगणों को भगवान शिव की शरण में जाने व उनसे इस प्रश्न का उत्तर बताने की सलाह दी.

जब सभी देवता भगवान शिव के समीप पहुँचे तो उनके मध्य इस झगड़े को देखते हुए भगवान शिव ने इसे सुलझाने की एक योजना सोची. उन्होंने एक प्रतियोगिता आयोजित की. सभी देवगणों को कहा गया कि वे सभी अपने-अपने वाहनों पर बैठकर इस पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर आएं. इस प्रतियोगिता में जो भी सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड की परिक्रमा कर उनके पास पहुँचेगा वही सर्वप्रथम पूजनीय माना जाएगा.

सभी देवता अपने-अपने वाहनों को लेकर परिक्रमा के लिए निकल पड़े. गणेश जी भी इसी प्रतियोगिता का हिस्सा थे. परन्तु गणेश जी बाकी देवताओं की तरह ब्रह्माण्ड के चक्कर लगाने की जगह अपने माता-पिता शिव-पार्वती की सात परिक्रमा पूर्ण कर उनके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गए.

जब समस्त देवता अपनी अपनी परिक्रमा करके लौटे तब भगवान शिव ने श्री गणेश को प्रतियोगिता का विजयी घोषित कर दिया. सभी देवता यह निर्णय सुनकर अचंभित हो गए व शिव भगवान से इसका कारण पूछने लगे. तब शिवजी ने उन्हें बताया कि माता-पिता को समस्त ब्रह्माण्ड एवं समस्त लोक में सर्वोच्च स्थान दिया गया है, जो देवताओं व समस्त सृष्टि से भी उच्च माने गए है. तब सभी देवता, भगवान शिव के इस निर्णय से सहमत हुए. तभी से गणेश जी को सर्वप्रथम पूज्य माना जाने लगा.

यही कारण है कि भगवान गणेश अपने तेज़ बुद्धिबल के प्रयोग के कारण देवताओं में सर्वप्रथम पूजे जाने लगे. तब से आज तक प्रत्येक शुभ कार्य या उत्सव से पूर्व गणेश वन्दन को शुभ माना गया है. गणेश जी का पूजन सभी दुःखों को दूर करने वाला एवं खुशहाली लाने वाला है. अतः सभी भक्तों को पूरी श्रद्धा व आस्था से गणेश जी का पूजन हर शुभ कार्य से पूर्व करना चाहिए.
तो इस कारण हर शुभ कार्य का श्री गणेश विघ्ननाशक गणेश जी के पूजन से ही होता है.

source :- https://bit.ly/2I2VydT

क्यों होती है सोमवार को भगवान शिव की पूजा?

सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है। पुरातन काल से लोग इस दिन शिव की पूजा करते आ रहे है। कभी सोचा है आपने कि सोमवार के दिन ही भगवान शिव की पूजा क्यों की जाती है? आइए जानते है इस दिन शिव की पूजा का क्या महत्व है।

हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की पूजा करने की परंपरा शुरू से चली आ रही है। अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए तो कोई अपने भाग्य को बदलने के लिए पूजा करता है। हिंदू धर्म में अगल दिन का अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा करने का महत्व है।

सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है। पुरातन काल से लोग इस दिन शिव की पूजा करते आ रहे है। कभी सोचा है आपने कि सोमवार के दिन ही भगवान शिव की पूजा क्यों की जाती है? आइए जानते है इस दिन शिव की पूजा का क्या महत्व है।



सोमवार का व्रत :-

लोग सोमवार को जो व्रत रखते हैं उसे सोमेश्वर कहते हैं। सोमेश्वर का अर्थ आप दो तरह से समझ सकते हैं इसका पहला अर्थ चंद्रमा है और दूसरा वह देव, जिसे सोमदेव भी अपना देव मानते हैं। हिंदू धर्म में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए इस दिन पूजा और व्रत किया जाता है। भगवान शिव को लोग भोले नाथ,महेश,के नाम से भी जानते हैं। भोले नाथ की पूजा-अर्चना करने से आपके सभी दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। मान्यता है श्रद्धालु अगर सोलह सोमवार पूरी श्रद्धा के साथ व्रत करें तो, भोले नाथ उनकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।

मान्यता है कि सोमवार के दिन जो व्यक्ति भगवान शिव को बेलपत्र अर्पित करता है उसकी सभी मन्नतें पूरी हो जाती हैं। सोम का एक अर्थ सौम्य भी होता है, शिव जी को संसार में शांत देवता के रूप में भी मान्यता दी जाती है। इसलिए भी सोमवार के दिन को भगवान शिव का दिन माना जाता है।

पूजन की सामग्री और विधि :-

इस दिन प्रातःकाल उठकर स्नान करने के बाद पूरी श्रद्धा के साथ भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। भोलेनाथ की पूजा सामग्री में आप शुद्ध जल, गंगा जल, कच्चा दूध,चीनी, केसर, रोली, सफेद चंदन, धतूरा, फल, अक्षत, सफेद फूल, माला,धूप बत्ती, दीपक, अगरबत्ती आदि सामग्री श्रद्धालु पूजा कर सकते हैं। इस दिन शिव की पूजा के लिए बेलपत्र को बहुत शुभ माना जाता है।

Source :- https://bit.ly/2MAMh0g

Wednesday, June 13, 2018

ब्राह्मण पुत्र होने के बाद भी परशुराम में क्यों थे क्षत्रियों के गुण !!

भगवान परशुराम एक ब्राह्मण थे। लेकिन आचरण उनका क्षत्रियों जैसा था।ब्राह्मण पुत्र होते हुए भी परशुराम में क्षत्रियों के गुण क्यों थे.



महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना।

किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा।

तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्रि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्रि के चार पुत्र हुए। उनमें से परशुराम चौथे थे। इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।

Source :- https://bit.ly/2HLvvYE

Sunday, June 10, 2018

शिवलिंग पर तुलसी के पत्ते नहीं चढ़ाने चाहिए ||


भगवान शिव ने जालंधर का वध ऐसे किया...


शास्त्रों में बताया गया है कि आखिर क्यों शिवलिंग पर तुलसी के पत्ते नहीं चढ़ाए जाते हैं। इसके बारे में कई मान्यताएं प्रचलित हैं, इनमें से एक मान्यता इस प्रकार है.....
पौराणिक मान्यता के अनुसार जालंधर नाम का एक असुर था जिसे अपनी पत्नी की पवित्रता और भगवान विष्णु के कवच की वजह से अमर होने का वरदान मिला हुआ था। इसका फ़ायदा उठाकर वह दुनिया भर में आतंक मचा रहा था। उसके आतंक को रोकने के लिए भगवान विष्णु और भगवान शिव ने उसे मारने की योजना बनाई। पहले भगवान विष्णु ने जालंधर से अपना कवच मांगा और इसके बाद भगवान विष्णु ने उसकी पत्नी की पवित्रता भंग की।
जिससे भगवान शिव को जालंधर को मरने का मौका मिल गया। जब वृंदा को अपने पति जालंधर की मृत्यु का पता चला तो उसे बहुत दुःख हुआ। गुस्से में उसने भगवान शिव को शाप दिया कि उन पर तुलसी की पत्ती कभी नहीं चढ़ाई जाएंगी। यही कारण है कि शिव जी की किसी भी पूजा में तुलसी की पत्ती नहीं चढ़ाई जाती है।

Saturday, June 9, 2018

राम जी के लिए क्यों चीरा हनुमान जी ने अपना सीना ||

राम जी के लिए क्यों चीरा हनुमान जी ने अपना सीना  ||


जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम अपनी पत्नी सीता और भैया लक्ष्मण के साथ चौदह वर्षों के वनवास और रावण के साथ हुए युद्ध के पश्चात् अयोध्या वापस लौटे तब इस उपलक्ष में पूरे अयोध्या में हर्षो उल्लाहस था और सभी लोग खुशियां मना रहे थे। कुछ दिनों पश्चात श्री राम अपने भाइयों एवं पत्नी सीता के साथ राज सभा में थे और सभी को युद्ध में उनके सहयोग के लिए प्यार स्वरुप उपहार दे रहे थे तब माता सीता ने हनुमान को अपने गले से उतार कर बहुत हे कीमती मोतियों का हार दिया और उनकी वीरता सहस और राम भक्ति की सराहना की, हनुमान जी उपहार ले कर कुछ आश्चर्य में थे और उन्होंने माला तोड़ दी और एक एक मोती अपने दांतो से चबा कर उसमे कुछ देखते और उसे फेंक देते,

हनुमान जी को ऐसा करते देख पूरी सभा हैरान थी और माता सीता भी क्रोधित थी की उनके दिए हुए उपहार का इतना अपमान, परंतु भगवान् सही राम इस सब को देख कर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। उनके इस व्यवहार को देख कर सभा में उपस्थित कुछ लोगो ने हमुमान जी को उपहार के इस अपमान का कारण पुछा तब श्री हनुमान जी ने बड़ी विनम्रता से का की में तो इन कीमती मोतियों में अपने प्रभु श्री राम और माता सीता को ढूंढ रहा हूँ, परंतु मुझे अभी तक किसी भी मोती में प्रभु राम और माता सीता के दर्शन नहीं हुए इसलिए ये मोती मेरे लिए बेकार हैं क्यू की जिस वस्तु में मेरे राम नहीं वो मेरे लिए व्यर्थ है। हनुमान जी की इस बात पर पूरी सभा में हलचल होने लगी कुछ हँसने लगे कुछ व्यंग करने लगे कुछ ने तो यहाँ तक कह दिया इस का अर्थ ये हुआ की प्रभु श्री राम और सीता आपके रोम रोम में वास होना चाहिए यदि नहीं है तो आपका ये शरीर भी व्यर्थ है।

ऐसा सुन कर हनुमान जी महाराज ने भरी सभा के सामने अपना सीना चीर के अपने हृदय में विराजित प्रभु राम और माता सीता के दर्शन समस्त सभा को कराये. और ये दृश्य देख कर समस्त सभा जन राम भक्त हनुमान जी की जय जय कार करने लगे।

Tuesday, June 5, 2018

भगवान श्री कृष्ण ने दिया प्रकृति संरक्षण का संदेश ||

भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन में ही सबकी भलाई के लिए निर्बल, दुर्लब, कमजोर वर्ग के लोगों में उत्साह भरने के लिए मनोबल ऊँचा रखने के लिए ब्रज में श्वेत आंदोलन की स्थापना की। जिन घरों से दूध, दही कंस जैसे दुर्दान्त दुष्टों के यहाँ भय के कारण सुविधापूर्वक पहुँचाया जाता था। भगवान श्रीकृष्ण ने उसे रोकने के लिए एक आंदोलन का स्वरूप निर्मित किया। उसी दूध-दही के द्वारा उन्हीं दुर्बल, निर्बल कमजोर लोगों को स्वयं बदनामी लेते हुए अपने को चोर की संज्ञा दी।


कंस के द्वारा किए गए जनता के पर अनेक अत्याचार उनमें बाल हत्या से लेकर जितनी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसाएँ हो सकती हैं। उन सबका सामना करने की ताकत इन दुर्लब गरीबों ने पाई। अनेक का मान-मर्दन अहंकार, दलित हुआ और गोवर्धन लीला इसका जीवन्त उदाहरण है। जिसमें इन्द्र ने भी अपनी ताकत का संपूर्ण प्रयोग किया। किंतु कृष्ण की जननिष्ठा के सामने इन्द्र का भी अहंकार टिक न सका।

एक-एक लाठी के सहयोग द्वारा अनेक लाठियों के संबल से कृष्ण की विशेष भावना शक्ति से इस सफल कार्य को अंजाम दिया जा सका। सात दिनों तक प्रलयकालीन बादलों ने ब्रज को तहस नहस करने की साजिश से अपने अपमान का बदला लेने के लिए भीषण जल वृष्टि की।
भगवान श्रीकृष्ण की संगठन शक्ति के सामने इन्द्र को नतमस्तक होना पड़ा। स्वयं श्रीकृष्ण गोवर्धन बनकर गोवर्धन पूजन की मान्यता प्रदान की। वृक्षों और पहाड़ों का संरक्षण, पर्यावरण को व्यवस्थित रखने का सबसे बड़ा साधन है।

गोवर्धन पूजा से सामान्य से सामान्य व्यक्ति जुड़ता है। यहाँ गरीब-अमीर, ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। भगवान कृष्ण की गोवर्धन पूजा महत्वपूर्ण जन पूजा है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार से लेकर तिरोभाव तक धर्मरक्षा, समाजहित, प्रकृति संरक्षण एवं सौहार्दपूर्ण समाज को संगठित रखने का संदेश दिया हैं।

Sunday, June 3, 2018

नंदी कैसे बने शिव की सवारी

नंदी बैल – भगवान शिव हिन्दू धर्म में विशेष महत्व रखते हैं. ये इकलौते ऐसे भगवान हैं, जिन्हें देवता, दैत्य और इंसान पूजते हैं. भगवान शिव ने कभी भी अपने भक्तों में भेद नहीं किया. भले ही वो दानव ही क्यों न हों, इसीलिए भगवान शिव की भक्ति पूरे लोक में फ़ैल गई. भगवान शिव एकमात्र ऐसे देवता बन गए, जिन्हें हर कोई पूजता है. भगवान शिव की आराधना और पूजा तो हर कोई करता है. उनेक मंदिर में जाने से पहले आपने नंदी बैल को देखा होगा. नंदी बैल की पूजा करने के बाद ही लोग मंदिर में प्रवेश करते हैं. असल में बिना इनको चढ़ावा चढ़ाए आपकी भक्ति पूरी नहीं होती.


नंदी बैल को भगवान शिव का प्रिय माना गया है. भगवान शिव के प्रिय गणों में नंदी महत्व रखते हैं. नंदी को भगवान शिव ने अपनी सवारी के रूप में भू चुना. ये विशेष महत्व किसी और को नहीं प्राप्त है. किसी भी मंदिर में शिव से पहले इनकी आराधना की जाती है. इन्हें माला-फूल आदि चढ़ाया जाता है. वो इसलिए कि अगर आप भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं तो सबसे पहले उनके प्रिय को प्रसन्न कीजिए.

नंदी बह्ग्वान शिव के प्रिय कैसे बन गए, जबकि उनके गले में सांपों का घेरा रहता है. भला किसी एक के इतने करीब होने पर कोई और कैसे उनका प्रिय बन सकता है. इसके पीछे बड़ी दिलचस्प कहानी है. पुराणों के अनुसार एक बार ब्रह्मचारी व्रत का पालन करते हुए शिलाद ऋषि को यह भय सताने लगा कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनका पूरा वंश समाप्त हो जाएगा, इसलिए उन्होंने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय किया. ये ऋषि एक ऐसे बालक को गोद लेना चाहते थे, जिसपर भगवान शिव की अपार कृपा हो. ऐसे में ऋषि भगवान् शिव की आराधना करने लगें.

ऋषि कठोर तपस्या करते रहे, लेकिन उन्हें भगवान की कृपा प्राप्त नहीं हुई. वो फिर से तपस्या करना शुरू किये. उनकी तपस्या का उद्देश्य किसी आम बच्चे को पाना नहीं, बल्कि एक ऐसी संतान को अपनाना पाना था, जिसपर भगवान शिव का आशीर्वाद हो और वह असामान्य रूप से आध्यात्मिक हो. ऋषि ने अपनी तपस्या को और भी कठोर बना दिया. अंत में भगवान शिव को अपने भक्त के लिए आना पड़ा. शिव उस ऋषि से प्रसन्न हुए.

भगवान् को अपने समक्ष देखकर ऋषि की आँखें ही चुंधिया गई. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि स्वयं ईश्वर उनके सामने खड़े हैं. ऋषि ख़ुशी से भगवान् के चरणों में गिर पड़े. भगवान् शिव ने ऋषि से वरदान मांगने को कहा. ऋषि ने अपनी कामना भगवान् के समक्ष रख दी. भगवान् ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वहां से चले गए. अगले ही दिन खेती करने के लिए वह खेत पर पहुंचे, जहां उन्हें एक खूबसूरत नवजात शिशु मिला. ऋषि बहुत खुश हुए, तभी भगवान् ने कहा कि यही तुम्हारी संतान है.

देखते देखते समय बीतता गया. नंदी बड़ा हो गया. एक दिन उस ऋषि के आश्रम पर दो सन्यासी आएं और उन्होंने कहा कि नंदी ज्यादा जीवित नहीं रहेगा. ये बात नंदी सुन लिए और जाकर भगवान् शिव की आराधना करने लगे. भगवान् प्रसन्न हुए, उन्होंने न केवल नंदी को वरदान दिया बल्कि बैल का मुख देकर उन्हें अपना वाहन बना लिया. इस तरह से नंदी बैल भगवान शिव के प्रिय वाहन बन गए. वो अजर और अमर हो गए. आज लोग भगवान् शिव के साथ ही उनकी भी पूजा करते हैं.

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Friday, June 1, 2018

श्री हनुमान क्यों हुए सिंदूरी

शास्त्रों में इस विषय में जानकारी दी गई है कि जब रावण को मारकर राम जी सीता जी को लेकर अयोध्या आए थे। तब हनुमान जी ने भी भगवान राम और माता सीता के साथ आने की जिद की। राम ने उन्हें बहुत रोका। लेकिन हनुमान जी थे कि अपने जीवन को श्री राम की सेवा करके ही बिताना चाहते थे। श्री हनुमान दिन-रात यही प्रयास करते थे कि कैसे श्री राम को खुश रखा जाए।



एक बार उन्होंनें माता सीता को मांग में सिंदूर भरते हुए देखा। तो माता सीता से इसका कारण पूछ लिया। माता सीता ने उनसे कहा कि वह प्रभु राम को प्रसन्न रखने के लिए सिंदूर लगाती हैं। हनुमान जी को श्री राम को प्रसन्न करने की ये युक्ति बहुत भा गई। उन्होंने सिंदूर का एक बड़ा बक्सा लिया और स्वयं के ऊपर उड़ेल लिया। और श्री राम के सामने पहुंच गए।

तब श्री राम उनको इस तरह से देखकर आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने हनुमान से इसका कारण पूछा। हनुमान जी ने श्री राम से कहा कि प्रभु मैंने आपकी प्रसन्नता के लिए ये किया है। सिंदूर लगाने के कारण ही आप माता सीता से बहुत प्रसन्न रहते हो। अब आप मुझसे भी उतने ही प्रसन्न रहना। तब श्री राम को अपने भोले-भाले भक्त हनुमान की युक्ति पर बहुत हंसी आई। और सचमुच हनुमान के लिए श्री राम के मन में जगह और गहरी हो गई।