अरुणादित्य की कथा :-
कश्यप ऋषि की पत्नी विनता अपनी सपत्नी (सौत) को गोद में बच्चा खेलाते देखकर स्वयं भी बच्चा खेलाने की अभिलाषा न त्याग सकी; अत: उसका जो अंडा अभी पूर्ण विकसित भी नहीं हुआ था, उसको उसने असमय फोड़ दिया। इसलिए उससे विकलांग शिशु पैदा हुआ और वह जंघा रहित होने के कारण ‘अनूरु’ एवं अंडा फोड़ देने से मां के प्रति क्रोधवश अरुण (लाल) होने से अरुण कहलाया।
आगे चलकर अरुण ने काशी में भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। बहुत दिनों तक उसने जल और वायु मात्र पर रहकर दिन-रात बड़े मनोयोग पूर्वक सूर्य की आराधना की। उसकी तपस्या के तेज से तीनों लोक कांप उठे तथा इंद्र का सिंहासन डगमगाने लगा। सभी देवता मिल कर भगवान् सूर्य के पास गए और कहा-‘‘प्रभो! आप लोक कल्याण के लिए शीघ्र जाकर तथा अरुण को वर देकर उन्हें तपस्या से विरत करें, अन्यथा उनकी तपस्या के तेज से तीनों लोक दहक उठेंगे।’’
भगवान् सूर्य विनतानंदन अरुण के समक्ष प्रकट हुए और कहा, ‘‘पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारी तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हैं। आज से काशी में तुम्हारे द्वारा आराधित मेरी मूर्त अरुणादित्य के नाम से प्रसिद्ध होगी।’’
इसके अतिरिक्त भगवान् सूर्य ने अरुण को और भी अनेक वर दिए। भगवान् सूर्य ने कहा, ‘‘अरुण! तुम जगत के हित के लिए अंधकार का नाश करते हुए सदा मेरे रथ पर सारथि के स्थान पर बैठा करो। जो मनुष्य काशी में विश्वेश्वर से उत्तर में तुम्हारे द्वारा स्थापित अरुणादित्य नामक मेरी मूर्त की पूजा-अर्चना करेंगे; दुख, दरिद्रता और पातक उनके निकट भी नहीं आएंगे। वह न विविध प्रकार की व्याधियों से आक्रांत होंगे और न ही नाना प्रकार के उपद्रवों से पीड़ित होंगे।’’
येऽर्चयिष्यन्ति सततमरुणादित्यसंज्ञकम्।
मामत्र तेषां नो दुखं न दारिद्रयं न पातकम्।।
ऐसा कहकर भगवान् सूर्य अरुण को अपने रथ पर बैठा कर अपने साथ ले गए। जो मनुष्य प्रात:काल उठकर प्रतिदिन सूर्य सहित अरुण को नमस्कार करता है, उसे दुख और भय स्पर्श भी नहीं कर सकते। अरुणादित्य काशी में पाटन-दरवाजा मोहल्ले के त्रिलोचन-मंदिर में स्थित हैं। अरुणादित्य के सेवकों को शोकाग्रि जनित दाह भी कभी नहीं होता है।
पूषा धनंजयो धाता सुषेण: सुरुचिस्तथा।
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी।।
पूषा तोषाय मेभूयात्सर्वपापापनोदनात्।
सहस्रकरसंवीतस्समस्ताशान्तरान्तर:।।
आश्विन मास में पूषा नामक आदित्य गौतम ऋषि, घृताची अप्सरा, सुरुचि गन्धर्व, धनंजय नाग, सुषेण यक्ष तथा धाता राक्षस के साथ परिभ्रमण करते हैं। सहस्रों रश्मियों से आवृत भगवान् पूषा मेरे सभी पापों का नाश करके मुझे संतोष प्रदान करें। पूषा आदित्य छ: सहस्र रश्मियों से तपते हैं तथा उनका अलक्तक वर्ण है।
कश्यप ऋषि की पत्नी विनता अपनी सपत्नी (सौत) को गोद में बच्चा खेलाते देखकर स्वयं भी बच्चा खेलाने की अभिलाषा न त्याग सकी; अत: उसका जो अंडा अभी पूर्ण विकसित भी नहीं हुआ था, उसको उसने असमय फोड़ दिया। इसलिए उससे विकलांग शिशु पैदा हुआ और वह जंघा रहित होने के कारण ‘अनूरु’ एवं अंडा फोड़ देने से मां के प्रति क्रोधवश अरुण (लाल) होने से अरुण कहलाया।
आगे चलकर अरुण ने काशी में भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। बहुत दिनों तक उसने जल और वायु मात्र पर रहकर दिन-रात बड़े मनोयोग पूर्वक सूर्य की आराधना की। उसकी तपस्या के तेज से तीनों लोक कांप उठे तथा इंद्र का सिंहासन डगमगाने लगा। सभी देवता मिल कर भगवान् सूर्य के पास गए और कहा-‘‘प्रभो! आप लोक कल्याण के लिए शीघ्र जाकर तथा अरुण को वर देकर उन्हें तपस्या से विरत करें, अन्यथा उनकी तपस्या के तेज से तीनों लोक दहक उठेंगे।’’
भगवान् सूर्य विनतानंदन अरुण के समक्ष प्रकट हुए और कहा, ‘‘पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारी तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हैं। आज से काशी में तुम्हारे द्वारा आराधित मेरी मूर्त अरुणादित्य के नाम से प्रसिद्ध होगी।’’
इसके अतिरिक्त भगवान् सूर्य ने अरुण को और भी अनेक वर दिए। भगवान् सूर्य ने कहा, ‘‘अरुण! तुम जगत के हित के लिए अंधकार का नाश करते हुए सदा मेरे रथ पर सारथि के स्थान पर बैठा करो। जो मनुष्य काशी में विश्वेश्वर से उत्तर में तुम्हारे द्वारा स्थापित अरुणादित्य नामक मेरी मूर्त की पूजा-अर्चना करेंगे; दुख, दरिद्रता और पातक उनके निकट भी नहीं आएंगे। वह न विविध प्रकार की व्याधियों से आक्रांत होंगे और न ही नाना प्रकार के उपद्रवों से पीड़ित होंगे।’’
येऽर्चयिष्यन्ति सततमरुणादित्यसंज्ञकम्।
मामत्र तेषां नो दुखं न दारिद्रयं न पातकम्।।
ऐसा कहकर भगवान् सूर्य अरुण को अपने रथ पर बैठा कर अपने साथ ले गए। जो मनुष्य प्रात:काल उठकर प्रतिदिन सूर्य सहित अरुण को नमस्कार करता है, उसे दुख और भय स्पर्श भी नहीं कर सकते। अरुणादित्य काशी में पाटन-दरवाजा मोहल्ले के त्रिलोचन-मंदिर में स्थित हैं। अरुणादित्य के सेवकों को शोकाग्रि जनित दाह भी कभी नहीं होता है।
पूषा धनंजयो धाता सुषेण: सुरुचिस्तथा।
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी।।
पूषा तोषाय मेभूयात्सर्वपापापनोदनात्।
सहस्रकरसंवीतस्समस्ताशान्तरान्तर:।।
आश्विन मास में पूषा नामक आदित्य गौतम ऋषि, घृताची अप्सरा, सुरुचि गन्धर्व, धनंजय नाग, सुषेण यक्ष तथा धाता राक्षस के साथ परिभ्रमण करते हैं। सहस्रों रश्मियों से आवृत भगवान् पूषा मेरे सभी पापों का नाश करके मुझे संतोष प्रदान करें। पूषा आदित्य छ: सहस्र रश्मियों से तपते हैं तथा उनका अलक्तक वर्ण है।
Source :- https://bit.ly/2yTeCvG