Thursday, March 7, 2019

क्यों दिया भगवान विष्णु को शुक्राचार्य के पिता ने श्राप?



शापित जीवन हमेशा दुखदायी माना जाता है। धार्मिक कथाओं की मानें तो यहां तक कि भगवान भी इसके दुष्परिणामों से बच नहीं पाए हैं। ऋषि दुर्वासा हमेशा अपने क्रोध और उसमें लोगों को श्राप देने के लिए जाने जाते रहे हैं। भगवान शिव से लेकर कृष्ण तक इसका परिणाम भुगत चुके हैं। लेकिन क्या किसी भी प्रकार यह श्राप आपकी जिंदगी को सुधार सकता है?
अध्यात्मिक मायनों में हर अंधेरा एक प्रकाश की ओर लेकर जाता है। अगर इसे श्राप के संदर्भ में देखा जाए तो बहुत हद तक यह भी वरदान बन सकता है। आपने सुना होगा कि जो होता है वह हमेशा अच्छे के लिए होता है, फिर उसके तात्कालिक परिणाम बुरे ही क्यों ना दिख रहे हों।
अच्छे और बुरे परिणामों के साथ धार्मिक हिंदू कथाओं का उदाहरण लें तो ये श्राप ही थे जिसने कई रूपों में सृष्टि का कल्याण किया। अगर ये श्राप ना होते तो शायद संसार भी आज इन उन्नत रूपों में नहीं होता। इनमें एक है ऋषि भृगु का भगवान विष्णु को शाप देना जिसने हिंदू सभ्यता को जीने की राह दी।

कथा
यह कथा मत्स्य की है। इसके अनुसार भगवान विष्णु ने धरती पर अवतार तो लिया लेकिन इनका अवतार लेना उनको मिले श्राप का परिणाम था। असुर गुरु शुक्राचार्य के पिता महाऋषि भृगु ने भगवान विष्णु को कई बार धरती पर जन्म लेने का श्राप दिया था और इसीलिए उन्होंने राम, कृष्ण, नरसिंहा और परशुराम आदि रूपों में मनुष्य रूप में जन्म लिया।
इसके अनुसार शुक्राचार्य बृहस्पति से अधिक ज्ञानी थे, बावजूद इसके देवराज इंद्र ने उनकी बजाय बृहस्पति को अपना गुरु माना। इसे अपना अपमान मानकर शुक्राचार्य ने असुरों का गुरु बनना स्वीकार कर लिया और असुरों के माध्यम से इंद्र से बदला लेने की ठानी।
लेकिन देवों को अमरता का वरदान था और असुरों को नहीं, इसलिए शुक्राचार्य को यह अच्छी तरह पता था कि असुर कभी भी देवों से जीत नहीं पाएंगे। इस मुश्किल का हल पाने के लिए शुक्राचार्य ने भगवान शिव को प्रसन्न कर मृत-संजीवनी का वरदान पाने की युक्ति सोची।
यह वह चीज थी जिससे किसी मृत को भी जिंदा किया जा सकता था। शुक्राचार्य भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या करने निकल गए लेकिन जाने से पहले उन्होंने असुरों को अपने माता-पिता ऋषि भृगु और मां काव्यमाता की कुटिया में रहने का निर्देश दिया ताकि उनकी अनुपस्थिति में देवता उन्हें नुकसान ना पहुंचा सकें।
जब इंद्र को यह बात पता चली तो उन्होंने इसे देवों को जीतने का एक सुनहरा अवसर माना। एक दिन जब ऋषि भृगु कुटिया में नहीं थे उन्होंने वहां आक्रमण कर दिया। लेकिन काव्यमाता ने अपने तेज से एक सुरक्षा कवच का निर्माण किया जिससे देव असुरों को नुकसान नहीं पहुंचा सके। इस प्रकार देवता असुरों से हारने लगे।
भगवान विष्णु को जब यह बात पता चली तो उन्होंने देवों की रक्षा करने की सोची। वे इंद्र का रूप धरकर कुटिया में गए और जब काव्यमाता देवों को परास्त करने लगीं तो अपने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काट दिया। ऋषि भृगु को जब यह बात पता चली तो उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि उन्हें भी बार-बार धरती पर जन्म लेकर जन्म-मरण के कष्टों को महसूस करना होगा। हालांकि बाद में ऋषि ने कामधेनु गाय की मदद से काव्यमाता को जिंदा कर लिया लेकिन उन्होंने भगवान विष्णु को दिया श्राप वापस नहीं लिया।
इस प्रकार धरती पर बार-बार पहले राम और फिर कृष्ण रूप में जन्म लिया। इसके अलावा नरसिंहा, परशुराम आदि रूपों में भी वे धरती पर अवतरित हुए। राम के जन्म से रामायण की रचना हुई और कृष्ण के अवतार में महाभारत कथा हुई। इस प्रकार जगत को ‘रामायण’ और ‘गीता’ ग्रंथ मिले। इनकी उपयोगिता और महत्व को किसी भी तरह समझाने की आवश्यकता नहीं है।

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