Saturday, March 24, 2018

हनुमान जी का लंका गमन

हनुमान जी का लंका गमन :- 



पवन वेग से हनुमान जी समुद्र के ऊपर आकाश में उड़े जा रहे थे । पवनदेव अप्रत्यक्ष रूप से उनकी सहायता कर रहे थे । आकाश में देवगण उन पर पुष्प वर्षा कर रहे थे । समुद्र के गर्भ में मैनाक नामक एक पर्वत था ।

समुद्र ने उससे कहा, ”हे मैनाक ! पवन पुत्र हनुमान रघुवंश शिरोमणि श्री रघुनाथ जी के कार्य के लिए लंका जा रहे हैं । तुम अपना आकार ऊपर-नीचे और चारों दिशाओं में बढ़ा सकते हो । मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम समुद्र के गर्भ से ऊपर उठो और श्री हनुमान जी को थोड़ा विश्राम करने के लिए कहो । इस प्रकार कोई यह नहीं कहेगा कि समुद्र ने श्री रघुनाथ जी के कार्य में सहयोग नहीं किया ।”

मैनाक पर्वत से भेंट:

समुद्र की आज्ञा पाकर मैनाक पर्वत आकाश की ओर ऊंचा उठ गया और तीव्र गति से जाते हुए हनुमान जी के मार्ग में आ गया । हनुमान जी ने समझा कि यह पर्वत उनके मार्ग में बाधा बन रहा है । इसलिए उन्होंने उस पर पद प्रहार करना चाहा ।

तभी मैनाक पर्वत हाथ जोड़कर हनुमान जी से बोला, ”हे पवनपुत्र ! मेरा आशय तुम्हारे मार्ग में रोड़ा बनने का नहीं है । मैं तो चाहता हूं कि आप मेरा आतिश्य ग्रहण करें और कुछ देर यहां विश्राम करके आगे जाए ।” इस पर हनुमान जी ने कहा, ”हे मैनाक ! तुम्हारा आतिथ्य मैंने स्वीकार कर लिया । परंतु मैं रुक नहीं सकता । मैंने सकल्प लिया हुआ है कि मार्ग में रुके बिना ही मैं लंका पहुँचूँगा ।”

ऐसा कहकर हनुमान ने अपने एक पैर का आघात करके मैनाक पर्वत को फिर से समुद्र में धकेल दिया और आगे बढ़ गए । उनकी गति और भी तीव्र हो गई ।

सुरसा से भेंट:

हनुमान जी अभी थोड़ा आगे बढे ही थे कि समुद्र में रहने वाली नागमाता सुरसा अपना विकराल मुंह फाड़कर हनुमान जी के मार्ग में आ खडी हुई और हनुमान जी से बोली, ”अरे वानर ! तू मेरा निरादर करके कहां जा रहा है ? तू मेरा भोजन है । मैं तुझे उठाऊंगी ।”

हनुमान जी ने मुस्कराकर सुरसा से कहा, ”देवी ! मैं श्रीरामचंद्र जी के कार्य से लंका जा रहा हूं । तुम्हें मेरे मार्ग में अवरोध नहीं बनना चाहिए और उनके कार्य में विप्न नहीं डालना चाहिए । यदि तुम मुझे खाना ही चाहती हो तो मैं तुम्हें वचन देताहूं किमैं श्रीरामचंद्र जी के कार्य को संपन्न करकेपुन तुम्हारे पास आ जाऊंगा, तब तुम मुझे खा लेना ।”

हनुमान जी के ऐसा कहने पर सुरसा बोली, ”अरे वानर ! मुझे यह वर मिला है कि कोई भी मुझे लांघकर आगे नहीं जा सकता । तुम्हें यदि आगे जाना ही है तो मेरे मुख में प्रवेश करके ही आगे जाना हो सकेगा ।” ऐसा कहकर सुरसा ने अपना विशाल मुख फैला दिया ।

आगे का मार्ग अवरुद्ध देखकर हनुमान जी ने भी अपना आकार बढ़ा लिया । सुरसा ने अपने मुख का आकार उनसे भी बड़ा कर लिया । तब हनुमान जी ने अपना रूप अंगूठे के बराबर छोटा करके सुरसा के मुख में प्रवेश किया और वे तत्काल उसके मुख से बाहर निकल आए ।

बाहर आकर हनुमान ने अपने पूर्व रूप में आकर सुरसा से कहा, ”हे देवी ! मैंने तुम्हारे मुख में प्रवेश कर लिया है । इस प्रकार तुम्हारा वर सत्य हो गया है । अब मैं उस स्थान को जाऊँगा जहाँ माता सीता विराजमान हैं ।”

हनुमान जी की चतुराई देखकर सुरसा ने अपने सामान्य रूप में आकर हनुमान जी से कहा, ”हे कपिश्रेष्ठ अब मैं तुम्हारे मार्ग में बाधा नहीं डालूंगी । तुम सुखपूर्वक श्रीराम के कार्य को संपन्न करने के लिए जाओ । मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं ।”

हनुमान जी द्वारा सिंहिका राक्षसी का वध:

हनुमान जी एक पल गंवाए बिना तीव्र गति से आगे बढ़ गए । वे अभी कुछ ही दूर गए थे कि समुद्र के गर्भ में रहने वाली एक अत्यंत भयंकर सिंहिका नामक राक्षसी ने उछलकर हनुमान जी को पकड़ लिया और बोली, ”अरे ! मुझे लांघकर जाने वाला तू कौन है ?”

वह राक्षसी अत्यंत विकट थी । वह पानी पर पड़ने वाली छाया से ही ऊपर उड़ते हुए जीव को पकड़ लेने की क्षमता रखती थी । हनुमान जी समझ गए कि यह अत्यंत दुष्ट राक्षसी है । इससे पहले कि वे अपने बचाव का कोई मार्ग सोचते, उस राक्षसी ने अपने विशाल मुख में हनुमान जी को डाल लिया और सटक गई ।

परंतु उसके पेट में पहुंचते ही हनुमान जी ने अपना आकार बढ़ाया और उसके पेट को फाड़कर बाहर निकल आए । सिंहिका का वध करके वे पुन: आकाश में उड़ने लगे । सिंहिका का विशाल शरीर समुद्र के गर्भ में समा गया ।

जिस समय हनुमान जी लंका के करीब पहुंचे तो उन्होंने सोचा कि उनके इस विशाल शरीर को देखकर कहीं राक्षसगण भयभीत न हो जाएं, ऐसा सोचकर उन्होंने अपना आकार छोटा कर लिया और अपने सामान्य रूप में आकर धीरे से लंका की धरती पर उतर पड़े ।

लंका प्रवेश के अवसर पर लंकिनी से भेंट:

त्रिकूट पर्वत पर खड़े होकर हनुमान जी ने लंका नगरी की शोभा को देखा । लंका नगरी के चारों ओर गहरी खाई थी । समस्त राजभवन स्वर्ण पत्रों से मंडित थे । विशाल परकोटे थे और सर्वत्र भव्य भवन दिखाई पड़ रहे थे ।

लंका में चारों ओर शक्तिशाली और विराट शरीर वाले राक्षस मदमस्त होकर विचरण कर रहे थे । परकोटों पर रावण के सशस्त्र सैनिक विद्यमान थे । उनके वर्ण काले थे और वे बड़े भयानक दिखाई पड़ रहे थे । अधिकांश राक्षस और राक्षसियां मद्यपान किए हुए थे और मांस भक्षण कर रहे थे ।

लंका के परकोटों के बाहर भयानक वन थे और नगर में प्रवेश के लिए भारी भरकम दरवाजे थे । उन दरवाजों पर भी सशस्त्र राक्षसों का पहरा था । लंका में कोई भी घर संपदा विहीन दिखाई नहीं पड़ता था । सभी संपन्न और बलशाली थे ।

हनुमान जी ने सोचा कि लंका में प्रवेश करने का यह समय उचित नहीं है । रात्रि में जब ये राक्षस मद्यपान और विलास कृत्यों से थक-हारकर सो जाएंगे, तब मैं लंका में प्रवेश करूंगा और सीता जी की खोज करूंगा । ऐसा सोचकर हनुमान जी ने त्रिकूट पर्वत पर ही समय बिताया और रात्रि का तीसरा प्रहर होने की प्रतीक्षा करने लगे ।

रात्रि का तीसरा प्रहर होने पर जब लंका में सोता पड़ गया तो हनुमान जी ने अपना सामान्य रूप बनाया और लंका में प्रवेश करने लगे । लेकिन तभी एक विशाल और कुरूप राक्षसी ने उन्हें रोका, ”हे वानर ! तू कौन है और इस तरह लंका में कहां घुसा चला जा रहा है ?

तू क्या जानता नहीं कि इस लंका की रक्षा करने का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा गया है ? मैं राजराजेश्वर लंकापति रावण की प्रधान सेविका हूं और मेरा नाम लंकिनी है । मेरे नाम पर ही इस नगरी का नाम लंका पड़ा है । मेरी आज्ञा के बिना कोई भी इस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता । तू बता कि यहां किसलिए आया है ?”

हनुमान जी ने कहा, ”हे देवी ! मैं श्रीराम का दूत हनुमान हूं और उनकी पत्नी सीता जी की खोज में यहां आया हूँ । मैं इस लंका नगरी से उनकी खोज करके ही वापस जाऊंगा । कोई भी मेरा मार्ग नहीं रोक सकता । जो ऐसा दुस्साहस करेगा वह पछताएगा ।”

हनुमान जी की बात सुनकर लंकिनी ने कहा, “तू जो भी है, मुझे परास्त किए बिना लंका में प्रवेश नहीं कर सकता । तुझे पहले मुझे परास्त करना होगा ।” ”हे देवी ! मैं स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाता । यह हमारी संस्कृति के विपरीत है । किंतु यदि कोई स्त्री भी मेरे मार्ग की बाधा बनेगी, तो मैं उसे भी अपने मार्ग से हटा दूंगा ।”

हनुमान जी ने उससे कहा । हनुमान जी की बात सुनकर लंकिनी को क्रोध आ गया । उसने पलटकर एक थप्पड़ हनुमान जी को मार दिया और चीखी, ”भाग जा यहां से, वरना मैं तुझे कच्चा चबा जाऊंगी ।” हनुमान जी ने भी आव देखा न ताव, अपना एक ऐसा लंकिनी पर चला दिया ।

वह ऐसा उन्होंने उसे स्त्री जानकर हल्के से ही चलाया था, पर वह उस घूंसे के प्रहार से धरती पर जा गिरी और उसके मुख से रक्त बहने लगा । लंकिनी का सारा शरीर पीड़ा से भर उठा । वह जोर-जोर से सांस लेकर हांफने लगी । कुछ क्षण बाद वह उठी और हनुमान जी के सामने हाथ जोड़कर बोली, ”हे महाबली वानर! मुझे लगता है कि अब लंका के पापों का अत समय आ पहुँचा है । ब्रह्मा जी की बात असत्य नहीं हो सकती ।

उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि जब कोई वानर तुझे अपने पराक्रम से अपने वश में कर लेगा, तब तुझे समझ लेना होगा कि राक्षसों पर महान विपत्ति आने वाली है और इस लंका का सर्वनाश हो जाएगा । हे महाबली ! आपकी शक्ति अपार है । आपके एक हल्के से प्रहार ने ही मेरे शरीर की चूल-चूल हिला दो है ।

आप श्रीराम के दूत हैं । आपके दर्शन पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया । आप अपनी इच्छा से इस लंका नगरी में प्रवेश करें और सीता जी से भेंट करे ।” इतना कहकर लंकिनी उनके मार्ग से हट गई । हनुमान जी ने तभी अपना सूक्ष्म रूप बनाया और लंका में प्रवेश किया ।

लंका में विभीषण से भेंट:

लंकिनी की बातों पर विचार करते हुए हनुमान जी राजभवन के अंतःपुर में प्रवेश कर गए । वहां उन्होंने अनेकानेक सुदर युवतियों और राक्षसों को सशस्त्र पहरा देते हुए देखा । राजभवन की शोभा नेत्रों को चकाचौंध कर रही थी । वहाँ एक शयनकक्ष में उन्होंने महाबली रावण को एक अति सुँदर गौरांग स्त्री के साथ सोते हुए देखा ।

पलभर के लिए उनके मन में विचार आया कि कहीं ये देवी सीता तो नहीं । लेकिन तत्काल उनके मन में विचार कौंधा कि देवी सीता इस प्रकार अपने पति से बिछुड़ने के उपरांत पूरे साज-संगार के साथ एक परपुरुष के साथ कैसे हो सकती है ।

निश्चय ही ये देवी सीता नहीं, कोई और है । तभी उन्हें लगा कि वे इस प्रकार सोती हुई स्त्रियों को देख रहे हैं, इससे कहीं उनके धर्म का लोप तो नहीं हो रहा है ? परंतु दूसरे ही पल वे सोचने लगते कि उन्हें देखकर भी उनके मन में किसी प्रकार के काम भाव उत्पन्न नहीं हो रहे हैं ।

वे तो बालब्रह्यचारी हैं और सदैव सात्विक विचारों को धारण करने वाले हैं । तभी उन्हें श्रीराम का ध्यान आया तो उनके मन का सारा मैल धुल गया । वे एक महल से दूसरे और दूसरे से तीसरे में होकर घूमते रहे । परंतु उन्हें कहीं भी सीता मैथ्या के दर्शन नहीं हुए ।

उन्होंने रावण द्वारा कुबेर से छीना हुआ ‘पुष्पक विमान’ भी देखा और उसकी भव्यता तथा शिल्प को देखकर वे चकित रह गए । एक बार उनके मन में आया कि वे रावण को सोते से उठाकर मार डालें और उसके शव को ले जाकर श्रीराम के चरणों में डाल दें ।

लेकिन इससे प्रभु श्रीराम का कार्य तो पूर्ण नहीं हो पाएगा । ऐसा सोचते हुए वे वहां भटक रहे थे । तभी उनकी दृष्टि एक ऐसे भवन पर पड़ी जिसकी बुर्जी पर चक्र लगा हुआ शोभा पा रहा था और दीवारों पर जगह-जगह प्रभु श्रीराम लिखा हुआ था ।

उसके चारों ओर वाटिका में सुंदर फूल खिले हुए थे और एक मंदिर भी वहां था । उस मंदिर में चतुर्भुज विष्णु और महालक्ष्मी की मूर्तियां विराजमान थीं । हनुमान जी सोच में पड गए कि इस राक्षस नगरी में भगवान विष्णु का भक्त यह वैष्णव कौन है ?

उसी समय भवन के भीतर से किसी के उठने और भगवान श्रीराम की स्तुति के स्वर सुनाई दिए । हनुमान जी ने सोचा कि यह अवश्य श्रीराम का कोई भक्त है । इससे मिलना चाहिए । हनुमान जी ने तत्काल एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और महल के द्वार पर जाकर ‘जय श्रीराम’ का उद्‌घोष किया ।

उस उद्‌घोष को सुनकर राजसी वस्त्रों में एक सौम्य आकृति वाले भद्र पुरुष ने द्वार खोला और कहा, ”विप्रवर ! आपका स्वागत है । मेरे अहोभाग्य, जो आज प्रात: वेला में मुझे आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ । कृपा अपना परिचय दें ।”

हनुमान जी ने कहा, ”हे भद्र पुरुष ! मैं दशरथ नंदन श्रीराम का दूत और किष्किंधा नरेश सुग्रीव का सेवक हनुमान हूं और इस राक्षस नगरी में श्रीराम के भक्त को देखकर आश्चर्यचकित हूँ ।”  हनुमान जी का परिचय पाकर उस भद्र पुरुष के चेहरे पर हर्ष छा गया । वह बोला, ”मेरे आराध्यदेव श्रीराम के आप दूत हैं, यह जानकर मेरा हृदय गद्‌गद हो उठा है ।

हे हनुमान जी! मैं लंकेश्वर रावण का छोटा भाई विभीषण हूं । मेरा एक भाई कुम्भकरण सदैव सोता रहता है और मेरे अग्रज लंकेश्वर रावण और उनके पुत्र मेघनाद सदैव युद्धरत रहते हैं । इसलिए राज्य का सारा उत्तरदायित्व मुझ पर ही रहता है ।”

”हे असुरश्रेष्ठ आप श्रीराम के भक्त हैं ।” हनुमान जी ने हर्षित होकर कहा, ”परंतु आपका भाई रावण तो उनका वैरी है । उसने दण्डकारण्य से उनकी धर्मपत्नी सीता जी का अपहरण किया है और यहां लंका में उन्हें रखा है । मैं उन्हीं की खोज में यहां आया हूं ।” ऐसा कहकर वे अपने असली रूप में आ गए ।

”हे वानरराज! मैं तो आपको देखते ही समझ गया था कि यह ब्राह्मण वेश आपका असली रूप नहीं है ।” विभीषण ने मुस्कराकर कहा, ”आपके इस रूप को देखकर मेरा मन हर्ष से भर उठा है । मैंने सुना है कि श्रीराम तो परमब्रह्म श्री विष्णु जी के अवतार हैं । आज मुझे आपके दर्शन हुए हैं तो शीघ्र ही उनके भी दर्शन होंगे ।”

”विभीषण जी! श्रीराम तो भक्तवत्सल, दयास्मिघु और सबके तारनहार हैं । मैं उन्हीं की कृपा से यह सौ योजन समुद्र लाघकर यहीं तक आया हू । क्या आप मुझे सीता मैथ्या का पता बताने की कृपा करेंगे ?” हनुमान जी ने उनसे पूछा, ”साथ ही मुझे यह आश्चर्य भी है कि आप यहां अपने अग्रज के शत्रु श्रीराम का नाम लेकर कैसे रह पाते हैं ?”

वीर शिरोमणि विभीषण ने मुस्कराकर कहा, ”वानरेन्द्र यह मेरे भ्राताश्री की विवशता है, जो वे मेरे किसी कार्य में व्यवधान नहीं डालते । मैंने आपको बताया तो था कि उनके पीछे लंका की देखभाल का दायित्व मुझ पर ही रहता है । इसीलिए वे मुझसे कुछ नहीं कहते । अब आप सुनें कि सीता जी को भ्राताश्री ने कहां रखा हुआ है ।

उन्हें यह शाप है कि वे किसी भी स्त्री से बलात्कार नहीं कर सकते । यदि ऐसा उन्होंने किया तो उसी समय उनकी मृत्यु हो जाएगी । इसीलिए पतिव्रता देवी सीता को उन्होंने अपने महल के निकट अशोक वाटिका में रखा है । वहां वे अत्यत साधारण वस्त्रों में चिंतातुर होकर एक विशाल वट वृक्ष के नीचे रहती हैं ।

परंतु उनसे भेंट करना सहज नहीं है । क्योंकि उन्हें हर समय दुर्दांत राक्षसियां घेरे रहती हैं । भ्राताजी जब कभी उनके पास उन्हें मनाने और धमकाने जाते हैं, तब वे अपनी भार्या मंदोदरी के साथ ही वहां जाते हैं । आप यदि सीता जी से मिलना चाहते हैं तो आपको छिपकर ही वहां जाना होगा । क्योंकि पूरी अशोक वाटिका में भयानक और शक्तिशाली राक्षसों का पहरा रहता है ।”

हनुमान जी ने विभीषण को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बोले, ”राक्षसेश्वर विभीषण जी ! अब आप मुझे आज्ञा दीजिए । मैं सीता मैथ्या से भेंट कर लूंगा और यहां से लौटकर भक्तवत्सल श्रीराम को आपके विषय में पूरे विस्तार से बताऊंगा ।”

”जाओ हनुमान!” विभीषण ने मुस्कराकर कहा, ”मेरे विषय में उन्हें तभी बताना जब आप उनके कार्य को पूरा करके पूरा संदेश उन्हें दे चुके । वह भी तब, जब वे पूरी तरह शांत हों । मैं तो बार-बार यही सोचकर शंकित हूं कि क्या वे मुझ जैसे राक्षस को अपने चरणों में स्थान देंगे ।”

”क्यों नहीं देंगे ।” हनुमान जी शीघ्रता से बोले, ”वे तो करुणा के सागर हैं । जो भी निश्छल हृदय से उनका स्मरण करता है, उसे वे अपने हृदय में स्थान देते हैं । जब मुझ जैसे अधम वानर को उन्होंने इतना सम्मान दिया है, तो वे आपको क्यों नहीं अपनाएंगे? वे जरूर आपसे मैत्री करके अपना मैत्री धर्म निबाहेंगे ।” ऐसा कहकर हनुमान जी तेजी से अशोक वाटिका की ओर चले गए ।

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