शिव औढरदानी, कल्याण के देवता माने गए हैं। सृष्टि निर्माण में एक ही शक्ति तीन रूपों में अपना कार्य संपादन करते हुए दिखाई देती है। ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं, विष्णु पालन-पोषण करते हैं और शिव संहार करते हैं यानी निर्माण से नाश तक जगत का चक्र परम सत्ता द्वारा निरंतर प्रकृति में चलता रहता है।
वेदों में प्रकृति के उपादानों की उपासना की गई है। हरेक उपादान को देवता का रूप दिया गया है। यह प्रकृति-विज्ञान का सारा प्रपंच बड़ा रहस्यमय है जिसे समझना सामान्यजन के लिए कठिन है। अनादिकाल से ऋषियों ने इन रहस्यों का मनन-चिंतन द्वारा अनुसंधान करने का प्रयत्न किया है।
ऋग्वेद के रात्रि सूक्त में रात्रि को नित्य प्रलय और दिन को नित्य सृष्टि कहा गया है। दिन में हमारा मन और हमारी इंद्रियां भीतर से बाहर निकलकर प्रपंच की ओर दौड़ती हैं और रात्रि में फिर बाहर से भीतर जाकर शिव की ओर प्रवृत्त हो जाती हैं। इसीलिए दिन सृष्टि का और रात प्रलय की द्योतक है। आइए पहचानें शिव के प्रतीक और उनका गहन रहस्य-
वृषभ : शिव का वाहन :-
वृषभ शिव का वाहन है। वह हमेशा शिव के साथ है। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को चार पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके चार पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस चार पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
वृषभ का एक अर्थ वीर्य और शक्ति भी है। अथर्ववेद में वृषभ को पृथ्वी का धारक, पोषक, उत्पादक आदि बताया गया है। वृष का अर्थ मेघ भी है। इसी धातु से वर्षा, सृष्टि आदि शब्द बने हैं।
जटाएं :-
शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्यमंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थतत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।
गंगा और चंद्रमा :-
इस उग्रता का निवास मस्तिष्क में है इसीलिए शांति की प्रतीक गंगा और अर्द्धचंद्र शिव के मस्तक पर विराजमान होकर उनकी उग्र वृत्ति को शांत-शीतल रखते हैं। दूसरे, विषपान के कारण वे जो नीलकंठ हो गए हैं, उसकी जलन को शांति भी गंगा और चंद्रमा से प्राप्त होती है।
चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र और सशक्त है। उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। उनके मस्तिष्क में कभी अविवेकपूर्ण विचार नहीं पनप पाते हैं। शिव का चंद्रमा स्वच्छ और उज्ज्वल है। उसमें मलीनता नहीं, वह अमृत की वर्षा करता है। चंद्रमा का एक नाम 'सोम' है, जो शांति का प्रतीक है। इसी हेतु सोमवार शिवपूजन, दर्शन और उपासना का दिन माना गया है।
तीन नेत्र :-
शिव को त्रिलोचन कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। वेदानुसार सूर्य और चंद्र विराट पुरुष के नेत्र हैं। अग्नि शिव का तीसरा नेत्र है, जो यज्ञाग्नि का प्रतीक है। सूर्य बुद्धि के अधिदेवता हैं और इस ज्ञान नेत्र या अग्नि से ही उन्होंने कामदेव को भस्म किया था।
शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम- तीन गुणों, भूत, भविष्य, वर्तमान- तीन कालों और स्वर्ग, मृत्यु, पाताल- तीन लोकों के प्रतीक हैं अत: शिव को त्र्यंबक भी कहते हैं।
सर्पों का हार :-
भगवान शंकर के गले और शरीर पर सर्पों का हार है। सर्प तमोगुणी है और संहारक वृत्ति का जीव है। यदि वह मनुष्य को डस ले तो उसका प्राणांत हो जाता है।
अत: संहारिकता के प्रतीकस्वरूप शिव उसे धारण किए हुए हैं अर्थात शिव ने तमोगुण को अपने वश में कर रखा है। सर्प जैसा क्रूर और हिंसक जीव महाकाल के अधीन है।
त्रिशूल :-
शिव के हाथों में एक मारक शस्त्र त्रिशूल है। सृष्टि में मानवमात्र आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीन तापों से त्रस्त रहता है। शिव का त्रिशूल इन तापों को नष्ट करता है।
शिव की शरण में जाकर ही भक्त इन दुखों से छूटकर आनंद की प्राप्ति कर सकता है। शिव का त्रिशूल इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सूचक है।
डमरू :-
शिव के हाथ में डमरू है। तांडव नृत्य के समय वे उसे बजाते हैं। पुरुष और प्रकृति के मिलन का नाम ही तांडव नृत्य है। उस समय अणु-अणु में क्रियाशीलता जागृत होती है और सृष्टि का निर्माण होता है।
अणुओं के मिलन और संघर्ष से शब्द का जन्म होता है। शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। डमरू का शब्द या नाद ही ब्रह्म रूप है। वही 'ओंकार' का व्यंजक है।
मुंडमाला :-
शिव के गले में मुंडमाला से यह भाव व्यक्त होता है कि उन्होंने मृत्यु को गले लगा रखा है तथा वे उससे भयभीत नहीं हैं। शिव के श्मशानवास का प्रतीक यह है कि जो जन्मता है, एक दिन अवश्य मरता है अत: जीवित अवस्था में शरीर-नाश का बोध होना ही चाहिए।
प्रलयकाल में सारा ब्रह्मांड श्मशान हो जाता है। हम मृत शरीरों को जिस श्मशान में ले जाते हैं, वह प्रलय का संक्षिप्त रूप है। उसके बीच अल्प उपस्थिति और उसके दर्शन से क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हो ही जाता है।
व्याघ्र चर्म :-
शिव की देह पर व्याघ्र चर्म को धारण करने की कल्पना की गई है। व्याघ्र अहंकार और हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है।
भस्म :-
शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। उज्जैन के महाकाल मंदिर में नित्य प्रात: भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान के मुर्दे की भस्म से शिव का पूजन-अर्चन होता है। लिंग पर भस्म का लेप किया जाता है। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है।
प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, केवल भस्म (राख) शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती है। भस्म से नश्वरता का स्मरण होता है। वेद में रुद्र को अग्नि का प्रतीक माना गया है। अग्नि का कार्य भस्म करना है अत: भस्म को शिव का श्रृंगार माना गया है।
रुद्र :-
शिव को रुद्रस्वरूप भी कहा गया है। पुराणानुसार रुद्र 11 हैं, जो तारामंडल में स्थित हैं। वैदिक वाक्य 'अग्निर्वेरुद्र:' से अभिप्राय है कि अग्नि ही रुद्र है। साहित्य में रुद्र से रौद्र रस की कल्पना की गई है जिसका अर्थ क्रोध होता है। प्रकृति-विज्ञान के अनुसार अंतरिक्ष में अभिव्यक्त विश्वव्यापक रुद्र देवता स्वानुकूल जिन-जिन विशेष शक्तियों द्वारा जिन-जिन कार्यों का संचालन करते हैं, उन्हीं शक्तियों की उपासना वेदों में बताई गई है।
इसीलिए वेदों में प्रकृति के उपादानों पर ऋचाएं और स्तुतियां कही गई हैं। व्यवहार मार्ग से इन्हें जनसाधारण को सरलता से समझाने के लिए मूर्ति शिल्प का सहारा लिया गया तथा देवताओं के मुंह, हाथ, पांव, रंग, अवस्था, वाहन, आयुध और आभूषण आदि को धारण करने के पीछे कौन-सा संकेत या रहस्य छिपा है, उसे समझाया गया है।
10 आयुध :-
मूर्तियों का निर्माण निदान शास्त्र के आधार पर किया गया है। निदान का अर्थ संकेत है। आदिपुरुष ब्रह्मस्वरूप शिव ही ब्रह्मांड में अग्नितत्व या रुद्र तत्व से व्याप्त हैं। एक ही अग्नितत्व, अग्नि, वायु और सूर्य इन तीनों रूपों में परिणित हो रहे हैं। इनमें से एक ही सूर्यात्मक रुद्र 5 दिशाओं में व्याप्त होकर पंचमुख बन जाते हैं।
उसी एक के पांचों मुख पूर्वा,पश्चिमा, उत्तरा, दक्षिणा एवं ऊर्ध्वा दिक्भेद से क्रमश: तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर एवं ईशान नामों से जाने जाते हैं। इस पंचवक्त्र शिव के 'प्रतिवक्त्रं भुजदयम' सिद्धांत से 10 हाथ हैं। इनमें अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घंटा, नाद और अग्नि- ये 10 आयुध हैं। पुराणों में इनके उद्देश्य और कार्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
5 मुख 10 हाथ :-
संक्षेप में महादेव के 5 मुख पंच महाभूतों के सूचक हैं। 10 हाथ 10 दिशाओं के सूचक हैं। हाथों में विद्यमान अस्त्र-शस्त्र जगतरक्षक शक्तियों के सूचक हैं।
अनेक विद्वान मानते हैं कि सृष्टि, स्थिति, लय, अनुग्रह एवं निग्रह- इन 5 कार्यों की निर्मात्री 5 शक्तियों के संकेत शिव के 5 मुख हैं। पूर्व मुख सृष्टि, दक्षिण मुख स्थिति, पश्चिम मुख प्रलय, उत्तर मुख अनुग्रह (कृपा) एवं ऊर्ध्व मुख निग्रह (ज्ञान) का सूचक है।
वेदों में प्रकृति के उपादानों की उपासना की गई है। हरेक उपादान को देवता का रूप दिया गया है। यह प्रकृति-विज्ञान का सारा प्रपंच बड़ा रहस्यमय है जिसे समझना सामान्यजन के लिए कठिन है। अनादिकाल से ऋषियों ने इन रहस्यों का मनन-चिंतन द्वारा अनुसंधान करने का प्रयत्न किया है।
ऋग्वेद के रात्रि सूक्त में रात्रि को नित्य प्रलय और दिन को नित्य सृष्टि कहा गया है। दिन में हमारा मन और हमारी इंद्रियां भीतर से बाहर निकलकर प्रपंच की ओर दौड़ती हैं और रात्रि में फिर बाहर से भीतर जाकर शिव की ओर प्रवृत्त हो जाती हैं। इसीलिए दिन सृष्टि का और रात प्रलय की द्योतक है। आइए पहचानें शिव के प्रतीक और उनका गहन रहस्य-
वृषभ : शिव का वाहन :-
वृषभ शिव का वाहन है। वह हमेशा शिव के साथ है। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को चार पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके चार पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस चार पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
वृषभ का एक अर्थ वीर्य और शक्ति भी है। अथर्ववेद में वृषभ को पृथ्वी का धारक, पोषक, उत्पादक आदि बताया गया है। वृष का अर्थ मेघ भी है। इसी धातु से वर्षा, सृष्टि आदि शब्द बने हैं।
जटाएं :-
शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्यमंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थतत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।
गंगा और चंद्रमा :-
इस उग्रता का निवास मस्तिष्क में है इसीलिए शांति की प्रतीक गंगा और अर्द्धचंद्र शिव के मस्तक पर विराजमान होकर उनकी उग्र वृत्ति को शांत-शीतल रखते हैं। दूसरे, विषपान के कारण वे जो नीलकंठ हो गए हैं, उसकी जलन को शांति भी गंगा और चंद्रमा से प्राप्त होती है।
चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र और सशक्त है। उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। उनके मस्तिष्क में कभी अविवेकपूर्ण विचार नहीं पनप पाते हैं। शिव का चंद्रमा स्वच्छ और उज्ज्वल है। उसमें मलीनता नहीं, वह अमृत की वर्षा करता है। चंद्रमा का एक नाम 'सोम' है, जो शांति का प्रतीक है। इसी हेतु सोमवार शिवपूजन, दर्शन और उपासना का दिन माना गया है।
तीन नेत्र :-
शिव को त्रिलोचन कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। वेदानुसार सूर्य और चंद्र विराट पुरुष के नेत्र हैं। अग्नि शिव का तीसरा नेत्र है, जो यज्ञाग्नि का प्रतीक है। सूर्य बुद्धि के अधिदेवता हैं और इस ज्ञान नेत्र या अग्नि से ही उन्होंने कामदेव को भस्म किया था।
शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम- तीन गुणों, भूत, भविष्य, वर्तमान- तीन कालों और स्वर्ग, मृत्यु, पाताल- तीन लोकों के प्रतीक हैं अत: शिव को त्र्यंबक भी कहते हैं।
सर्पों का हार :-
भगवान शंकर के गले और शरीर पर सर्पों का हार है। सर्प तमोगुणी है और संहारक वृत्ति का जीव है। यदि वह मनुष्य को डस ले तो उसका प्राणांत हो जाता है।
अत: संहारिकता के प्रतीकस्वरूप शिव उसे धारण किए हुए हैं अर्थात शिव ने तमोगुण को अपने वश में कर रखा है। सर्प जैसा क्रूर और हिंसक जीव महाकाल के अधीन है।
त्रिशूल :-
शिव के हाथों में एक मारक शस्त्र त्रिशूल है। सृष्टि में मानवमात्र आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीन तापों से त्रस्त रहता है। शिव का त्रिशूल इन तापों को नष्ट करता है।
शिव की शरण में जाकर ही भक्त इन दुखों से छूटकर आनंद की प्राप्ति कर सकता है। शिव का त्रिशूल इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सूचक है।
डमरू :-
शिव के हाथ में डमरू है। तांडव नृत्य के समय वे उसे बजाते हैं। पुरुष और प्रकृति के मिलन का नाम ही तांडव नृत्य है। उस समय अणु-अणु में क्रियाशीलता जागृत होती है और सृष्टि का निर्माण होता है।
अणुओं के मिलन और संघर्ष से शब्द का जन्म होता है। शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। डमरू का शब्द या नाद ही ब्रह्म रूप है। वही 'ओंकार' का व्यंजक है।
मुंडमाला :-
शिव के गले में मुंडमाला से यह भाव व्यक्त होता है कि उन्होंने मृत्यु को गले लगा रखा है तथा वे उससे भयभीत नहीं हैं। शिव के श्मशानवास का प्रतीक यह है कि जो जन्मता है, एक दिन अवश्य मरता है अत: जीवित अवस्था में शरीर-नाश का बोध होना ही चाहिए।
प्रलयकाल में सारा ब्रह्मांड श्मशान हो जाता है। हम मृत शरीरों को जिस श्मशान में ले जाते हैं, वह प्रलय का संक्षिप्त रूप है। उसके बीच अल्प उपस्थिति और उसके दर्शन से क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हो ही जाता है।
व्याघ्र चर्म :-
शिव की देह पर व्याघ्र चर्म को धारण करने की कल्पना की गई है। व्याघ्र अहंकार और हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है।
भस्म :-
शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। उज्जैन के महाकाल मंदिर में नित्य प्रात: भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान के मुर्दे की भस्म से शिव का पूजन-अर्चन होता है। लिंग पर भस्म का लेप किया जाता है। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है।
प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, केवल भस्म (राख) शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती है। भस्म से नश्वरता का स्मरण होता है। वेद में रुद्र को अग्नि का प्रतीक माना गया है। अग्नि का कार्य भस्म करना है अत: भस्म को शिव का श्रृंगार माना गया है।
रुद्र :-
शिव को रुद्रस्वरूप भी कहा गया है। पुराणानुसार रुद्र 11 हैं, जो तारामंडल में स्थित हैं। वैदिक वाक्य 'अग्निर्वेरुद्र:' से अभिप्राय है कि अग्नि ही रुद्र है। साहित्य में रुद्र से रौद्र रस की कल्पना की गई है जिसका अर्थ क्रोध होता है। प्रकृति-विज्ञान के अनुसार अंतरिक्ष में अभिव्यक्त विश्वव्यापक रुद्र देवता स्वानुकूल जिन-जिन विशेष शक्तियों द्वारा जिन-जिन कार्यों का संचालन करते हैं, उन्हीं शक्तियों की उपासना वेदों में बताई गई है।
इसीलिए वेदों में प्रकृति के उपादानों पर ऋचाएं और स्तुतियां कही गई हैं। व्यवहार मार्ग से इन्हें जनसाधारण को सरलता से समझाने के लिए मूर्ति शिल्प का सहारा लिया गया तथा देवताओं के मुंह, हाथ, पांव, रंग, अवस्था, वाहन, आयुध और आभूषण आदि को धारण करने के पीछे कौन-सा संकेत या रहस्य छिपा है, उसे समझाया गया है।
10 आयुध :-
मूर्तियों का निर्माण निदान शास्त्र के आधार पर किया गया है। निदान का अर्थ संकेत है। आदिपुरुष ब्रह्मस्वरूप शिव ही ब्रह्मांड में अग्नितत्व या रुद्र तत्व से व्याप्त हैं। एक ही अग्नितत्व, अग्नि, वायु और सूर्य इन तीनों रूपों में परिणित हो रहे हैं। इनमें से एक ही सूर्यात्मक रुद्र 5 दिशाओं में व्याप्त होकर पंचमुख बन जाते हैं।
उसी एक के पांचों मुख पूर्वा,पश्चिमा, उत्तरा, दक्षिणा एवं ऊर्ध्वा दिक्भेद से क्रमश: तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर एवं ईशान नामों से जाने जाते हैं। इस पंचवक्त्र शिव के 'प्रतिवक्त्रं भुजदयम' सिद्धांत से 10 हाथ हैं। इनमें अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घंटा, नाद और अग्नि- ये 10 आयुध हैं। पुराणों में इनके उद्देश्य और कार्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
5 मुख 10 हाथ :-
संक्षेप में महादेव के 5 मुख पंच महाभूतों के सूचक हैं। 10 हाथ 10 दिशाओं के सूचक हैं। हाथों में विद्यमान अस्त्र-शस्त्र जगतरक्षक शक्तियों के सूचक हैं।
अनेक विद्वान मानते हैं कि सृष्टि, स्थिति, लय, अनुग्रह एवं निग्रह- इन 5 कार्यों की निर्मात्री 5 शक्तियों के संकेत शिव के 5 मुख हैं। पूर्व मुख सृष्टि, दक्षिण मुख स्थिति, पश्चिम मुख प्रलय, उत्तर मुख अनुग्रह (कृपा) एवं ऊर्ध्व मुख निग्रह (ज्ञान) का सूचक है।
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