महाभारत का युद्ध अपनी चरम सीमा पर था और कौरवों की ओर से कर्ण सेनापति था | कौरवों और पांड्वो के बीच भीषण युद्ध चल रहा था हर तरफ मारकाट हो हो रही थी | कौरवो की ओर से कर्ण और पांडवों की और से अर्जुन एक दूसरे से युद्ध कर रहे थे | कभी अर्जुन का पलड़ा भारी पड़ता तो कभी कर्ण का पलड़ा भारी होता | अचानक अर्जुन ने अपनी धनुष विद्या का प्रयोग कर कर्ण को पस्त कर दिया |कर्ण लगभग लगभग धराशायी सा हो गया | हालाँकि वह भी एक नंबर का तीरंदाज़ था लेकिन अर्जुन के आगे उसका टिक पाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा था | तभी एक जहरीला और और डरावना सर्प कर्ण के तरकश में तीर के आकार में बदल कर घुस गया तो कर्ण ने जब तरकश में से बाण निकालना चाहा तो उसे उसका स्पर्श कुछ अजीब सा लगा कर्ण ने सर्प को पहचान कर उस से कहा कि तुम मेरे तरकश में केसे घुसे तो इस पर सर्प ने कहा तो कि ‘ हे कर्ण अर्जुन के खांडव वन में आग लगाई थी और उसमे मेरी माता जल गयी थी तभी से मेरे मन में अर्जुन के प्रति बदले की भावना है’ इसलिए तुम मुझे बाण के रूप में अर्जुन पर चला दे और मैं उसे जाते ही डस लूँगा जिस से मेरा बदला पूरी हो जायेगा क्योंकि अर्जुन की मौत हो जाएगी और दुनिया तुम्हे विजयी कहेगी |
सर्प की बात सुनकर कर्ण ने सहजता से कहा कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि ये नैतिक नहीं है और हे सर्पराज अर्जुन ने अवश्य जब खांडव वन में आग लगाई लेकिन निश्चित ही अर्जुन का ये उद्देश्य नहीं था और मैं इसमें अर्जुन को इसमें दोषी नहीं मानता क्योंकि उस से ये अनजाने में ही हो गया होगा और दूसरा अनेतिक तरीके से विजय प्राप्त करना मेरे संस्कारों में नहीं है इसलिए मैं ऐसा अनेतिक काम नहीं करूँगा अगर मुझे अर्जुन को हराना है तो मैं उसे नेतिक तरीके से हराऊंगा इसलिए हे सर्पराज आप वापिस लौट जाएँ और अर्जुन को कोई भी नुकसान न पहुंचाए | कर्ण की नेतिकता देखकर सर्प का मन बदल गया और वह बोला कि हे कर्ण तुम्हारी दानशीलता और नेतिकता की मिसाल युगों युगों तक दी जाती रहेगी | सर्प वंहा से उड़ गया और कर्ण को अपने प्राण गंवाने पड़े |
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