Pages

Tuesday, June 20, 2017

|| देवताओं ने दिए अर्जुन को दिव्यास्त्र ||



एक बार वीरवर अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुए एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान शंकर की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है। शिव ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा, उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठाकर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये। शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे। दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे, किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा-टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े मुस्कुराता रहा। अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकराकर दो टुकड़े हो गई। अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।

थोड़ी देर पश्चात जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़ा मुस्कुरा रहा है। भील की शक्ति देखकर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली, किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई। इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े। भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा- "हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।” भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्ध्यान हो गये। उसके पश्चात वहाँ पर वरुण, यम, कुबेर, गन्धर्व और इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की। यह देखकर यमराज ने कहा- "अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्रीकृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिलकर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर अपने-अपने लोकों को चले गये। अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय इन्द्र ने कहा- "हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं, अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रहकर प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँचकर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।

अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुए दिव्य और अलौकिक अस्त्र-शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखी और उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर ली। एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले- "वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया। एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा- "हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी काम-वासना जागृत हो गई है, अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी काम-वासना को शांत करें।” उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले- "हे देवि! हमारे पूर्वजों ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था। अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं। देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा- "तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई। जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले- "वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है, वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी, यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।”

दूसरी ओर शेष पाण्डवगण उत्तराखंड के अनेक मनमोहक द‍ृश्यों को देखते हुए ऋषि आर्ष्टिषेण के आश्रम में आ पहुँचे। उनका यथोचित स्वागत सत्कार करने के पश्‍चात महर्षि आर्ष्टिषेण बोले- "हे धर्मराज युधिष्ठिर! आप लोगों को अब गन्धमादन पर्वत से और आगे नहीं जाना चाहिये, क्योंकि इसके आगे केवल सिद्ध तथा देवर्षिगण ही जा सकते हैं। अतः आप लोग अब यहीं रहकर अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करें।” इस प्रकार पाण्डवों की मण्डली महर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम में ही रहकर अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। उस प्रतीक्षा-काल में भीम ने वहाँ निवास करने वाले समस्त दुष्टों और राक्षसों का अन्त कर दिया। उधर जब अर्जुन इन्द्र की पुरी अमरावती में रह रहे थे तो एक दिन इन्द्र ने उनसे कहा- "हे पार्थ! यहाँ रहकर तुम समस्त अस्त्र-शस्त्रादि विद्याओं में पारंगत हो चुके हो और तुम्हारे जैसा धनुर्धर इस जगत में कदाचित ही कोई दूसरा होगा। अब तुम मेरे शत्रु निवातकवच नामक दैत्य से युद्ध करके उसका वध करो। निवातकवच दैत्य का वध करके वापस आने के बाद इन्द्र ने अर्जुन के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा- "हे पार्थ! अब यहाँ पर आपका कार्य समाप्त हुआ। आपके भाई गन्धमादन पर्वत पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। चलिये मैं आपको अब उनके पास पहुँचा दूँ।” इस प्रकार अर्जुन देवराज इन्द्र के साथ उनके रथ में बैठकर गन्धमादन पर्वत में अपने भाइयों के पास आ पहुँचे। धर्मराज युधिष्ठिर ने देवराज इन्द्र का विधिवत पूजन किया। अर्जुन भी ऋषिगणों, ब्राह्मणों, युधिष्ठिर तथा भीम के चरणस्पर्श करने के पश्‍चात नकुल, सहदेव तथा मण्डली के अन्य सदस्यों से गले मिले। इसके पश्‍चात देवराज इन्द्र उस मण्डली की गन्धमादन पर्वत पर स्थित कुबेर के महल में रहने की व्यवस्था कर वापस अपने लोक चले गये।

No comments:

Post a Comment