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Tuesday, September 25, 2018

भगवान् गणेश का जन्म कैसे हुआ ?



एक हैं जगत के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी और दूसरे हैं जगत के पालनहार श्री हरि विष्णु। इन दोनों के अलावा एक मात्र भगवान शिव हैं जिनकी शक्ति के सामने देव और दानव सिर झुकाते हैं। भगवान विष्णु तो समय-समय पर अवतार लेकर दुनिया से पाप और पापियों का नाश करते हैं लेकिन एक समय ऐसा आया जब उबटन से बना एक बालक जीवित हो उठा।
इस बालक ने भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी को युद्ध के लिए ललकारा और अपनी युद्ध कला से चकित कर दिया। इस बालक का निर्माण देवी पार्वती ने स्नान के समय किसी को कैलाश पर नहीं पाकर अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया था। इस घटना का वर्णन शिव पुराण में मिलता है। देवी पार्वती ने बालक से कहा कि मैं स्नान करने जा रही हूं। जब तक मैं स्नान करके नही आती हूं तुम द्वार पर पहरा दो।

इस बीच महादेव भ्रमण करते हुए कैलाश पहुंच गए। बालक ने महादेव को भी रोक दिया। भगवान शिव ने बालक को कफी समझाया लेकिन उसने भगवान शिव की एक नहीं मानी। इसी बीच ब्रह्मा और विष्णु भी कैलाश आ पहुंचे। ब्रह्मा विष्णु ने बालक को बल पूर्वक हटाने का प्रयास किया तब बालक ने दोनों देवताओं से भयंकर युद्ध किया। शिव इससे क्रोधित हो उठे और द्वारपाल बने उस बालक पर त्रिशूल का प्रहार कर दिया।

बालक का सिर माता को पुकारते हुए भूमि पर गिर पड़ा। देवी पार्वती जब स्नान करके बाहर आई तो इस दृश्य को देखा तो उग्र हो गईं। क्रोध में आककर पार्वती संसार को नष्ट करने लगी। पार्वती जी को मनाने के लिए विष्णु जी ने एक हाथी का सिर उस बालक के धड़ से जोड़ दिया और यह बालक गणपति के नाम से संसार में विख्यात हो गया।

भगवान शिव और पार्वती ने इस वीर बालक को पुत्र के रूप में स्वीकार किया और गणों में प्रधान गणेश नाम दिया। इनकी पूजा का दिन यानी गणेश चतुर्थी इस वर्ष 9 अगस्त को है।

source : https://bit.ly/2Q5F0qd 

Monday, September 24, 2018

भगवान शिव ने नीलकंठ क्यों पीया ?




भोलेनाथ के नाम
भोलेनाथ, महादेव, महेश नाजाने कितने नामों से जाने जाने वाले भगवान शिव अपने भक्तों के बीच भोलेनाथ के नाम से ज्यादा लोक प्रिय हैं। भगवान शिव अपने भक्तों में ना तो भेदभाव करते हैं और अन्य देवी-देवताओं की अपेक्षा उनसे बहुत ही जल्द प्रसन्न भी हो जाते हैं। यही वजह है कि उनके भक्त उन्हें भोलेनाथ कहते हैं।


विनाश की बागडोर
सृष्टि के विनाश की डोर संभाले भगवान शिव का एक और ना भी है, नीलकंठ। इस नाम के पीछे का कारण है उनका नीला कंठ, जो इस बात का प्रमाण है कि शिव सृष्टि को बुराई और पाप से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।


शिव का स्वरूप
शिव के स्वरूप को कुछ इस तरह बेहतर समझा जा सकता है, बालों में गंगा को संभाले, बालों में चंद्र का मुकुट और गले में सांप को लटकाए, हाथ में त्रिशूल और अपने प्रिय वाहन नंदी की सवारी करने वाले वो देव जो हमेशा सेही मानव जाति के रक्षक और बुरी शक्तियों के लिए विनाशक रहे हैं।


भिन्न-भिन्न स्वरूप
शिव के भिन्न-भिन्न भक्त उन्हें भिन्न-भिन्न स्वरूपों में देखते हैं। इन्हीं स्वरूपों के आधार पर उन्हें अलग-अलग नाम भी दिए गए हैं। आज हम आपको उनके नीलकंठ होने का रहस्य बताएंगे।


इन्द्र को श्राप
पुराणों के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि ने अपने अपमान से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र को यह श्राप दिया कि वे लक्ष्मी (धन) विहीन हो जाएंगे। ऐसे में इन्द्र, भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने के लिए गए। भगवान विष्णु ने उन्हें श्राप से मुक्ति पाने का एक मार्ग बताया।


समुद्र मंथन
भगवान विष्णु ने इन्द्र देव को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा, जिसके लिए असुरों को अमृत का लालच दिया गया।


मंथन की शुरुआत
मंदार पर्वत, वासुकी नाग और स्वयं भगवान विष्णु के कच्छप अवतार की सहायता से समुद्र मंथन की शुरुआत हुई, एक तरफ असुर और दूसरी तरह देवता।


14 लाभदायक वस्तुएं
इस मंथन के दौरान समुद्र में से 14 लाभदायक और बहुमूल्य वस्तुएं निकली जैसे इच्छा पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, एहरावत हाथी, अप्सरा रंभा आदि।



देवता-असुर
इन सभी वस्तुओं को देवताओं और असुरों के बीच बराबर बांटा गया लेकिन इसके बाद जो निकला उसे ना तो देवता लेने के लिए तैयार थे और ना ही असुर।

हलाहल विष
जब इस मंथन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया तो क्षीर सागर में से हलाहल नाम का ऐसा घातक विष निकला जिसकी एक बूंद भी बड़ा सर्वनाश कर सकती थी।


शिव की सहायता
इस हलाहल का पान करने के लिए ना तो देवता तैयार हो रहे थे और ना ही असुर। इसकी एक बूंद भी धरती पर पड़ती तो बड़ी तबाही हो जाती, ऐसे में देवता और असुर मिलकर भगवान शिव के पास सहायता मांगने गए।


जहर का पान
शिव जी बहुत दयालु और अपने भक्तों की रक्षा करने वाले हैं, बिना किसी बात की परवाह किए उन्होंने देवताओं और असुरों की समस्या को सुलझाने और ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए उस जहर का पान कर लिया।



नीलकंठ
माता पार्वती जानती थीं कि यह विष स्वयं महादेव के लिए भी घातक है इसलिए उन्होंने अपने हाथों से शिव के गले को पकड़ उस जहर को उनके गले में ही रोक दिया। जिसकी वजह से भगवान शिव का गला नीला पड़ गया। इस घटना के बाद से ही शिव को नीलकंठ का नाम दिया गया।


शिवरात्रि
समुद्र मंथन की घटना के उपलक्ष्य और भगवान शिव को धन्यवाद देने के लिए प्रतिवर्ष फाल्गुन माह की कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि का त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था।

 source : https://bit.ly/2puLXpm 
 

Thursday, September 20, 2018

विष्‍णु भगवान के चार हाथों के पीछे है इतनी बड़ी कहानी




हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु को धरती पर सबसे ज्यादा मनुष्य रूप में अवतार लेने वाले सभी देवताओं में सबसे पहला स्थान दिया जाता है।

अक्सर शेषनाग की शैय्या पर मौन होकर लेटे रहने वाले भगवान विष्णु का एक ऐसा रहस्य है जो उनके आशीष देने वाले हाथ से जुड़ा है।
पौराणिक कथा के मुताबिक, प्राचीनकाल में जब भगवान शिव के मन में सृष्टि की रचना का विचार आया तो उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से भगवान विष्णु को उत्पन्न किया।

इसी गलती से सुदामा को मिली थी गरीबी

उन्हें चार हाथ भी प्रदान किए जिसमें कई शक्तियां विदमान हैं। भगवान विष्णु के दो हाथ मनुष्य के लिए भौतिक फल देने वाले हैं, पीठ की तरफ बने हुए दो हाथ मनुष्य के लिए आध्यात्मिक दुनिया का मार्ग दिखाते हैं।

माना जाता है कि भगवान विष्णु के चार हाथ चारों दिशाओं की भांति अंतरिक्ष की चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। श्रीहरि के यह चारों हाथ मानव जीवन के लिए चार चरणों और चार आश्रमों के प्रतीक के रूप में जाने जाते हैं-


पहला - ज्ञान के लिए खोज (ब्रह्मचर्य )।


दूसरा - पारिवारिक जीवन (गृहस्थी)


तीसरा - वन में वापसी (वानप्रस्थ)


चौथा - संन्यास (संन्यासी जीवन)। 


                                                                                                                source - https://bit.ly/2Npk1Sn

Monday, September 17, 2018

श्रीगणेश पौराणिक कथा


भगवान गणेश के संबंध में यूँ तो कई कथाएँ प्रचलित है किंतु उनके गणेश कहलाने और सर्वप्रथम पूज्य होने के संबंध में जग प्रसिद्ध कथा यहाँ प्रस्तुत है।


पौराणिक कथा : एक समय जब माता पार्वती मानसरोवर में स्नान कर रही थी तब उन्होंने स्नान स्थल पर कोई आ न सके इस हेतु अपनी माया से गणेश को जन्म देकर 'बाल गणेश' को पहरा देने के लिए नियुक्त कर दिया।

इसी दौरान भगवान शिव उधर आ जाते हैं। गणेशजी उन्हें रोक कर कहते हैं कि आप उधर नहीं जा सकते हैं। यह सुनकर भगवान शिव क्रोधित हो जाते हैं और गणेश जी को रास्ते से हटने का कहते हैं किंतु गणेश जी अड़े रहते हैं तब दोनों में युद्ध हो जाता है। युद्ध के दौरान क्रोधित होकर शिवजी का सिर धड़ से अलग कर देते हैं।



शिव के इस कृत्य का जब पार्वती को पता चलता है तो वे विलाप और क्रोध से प्रलय का सृजन करते हुए कहती है कि तुमने मेरे पुत्र को मार डाला। माता का रौद्र रूप देख शिव एक हाथी का सिर गणेश के धड़ से जोड़कर गणेश जी को पुन: जीवित कर देते हैं। तभी से भगवान गणेश को गजानन गणेश कहा जाने लगा।

                                                                                                                                    source-        https://bit.ly/2NjJI6B

Saturday, September 15, 2018

भगवान राम को वानवास क्यों जाना पड़ा?


रामयण की सबसे बड़ी घटना है भगवन श्री राम का देवी सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास गमन। रामायण की कथा के अनुसार कैकेयी की ज‌िद्द की वजह से भगवान राम को वन जाना पड़ा था। लेक‌िन यह मात्र एक दृश्य घटना है। श्रीराम के वन गमन के पीछे कई दूसरे कारण भी थे ज‌िन्हें वही व्यक्त‌ि समझ सकता है ज‌िन्होंने रामायण को पढ़ा और समझा हो।

कैकेयी ने हमेशा राम को अपने पुत्र भरत के समान ही प्रेम क‌िया। कभी भी कैकेयी ने राम के साथ कोई भेद भाव नहीं क‌िया। यही वजह थी क‌ि जब राम के वन जाने की वजह का पता भरत को चला तो वह हैरान हुए थे क‌ि माता कैकेयी ऐसा कैसे कर सकती है। और सच भी यही था क‌ि कैकेय ने यह जान बुझकर नहीं क‌िया था। इनसे यह काम देवताओं ने करवाया था। यह बात राम च‌र‌ित मानस के इस दोहे से स्पष्ट होता है-  ब‌िपत‌ि हमारी ब‌िलोक‌ि बड़‌ि मातु कर‌िअ सोइ आजु। रामु जाह‌िं बन राजु तज‌ि होइ सकल सुरकाजु।।

भगवान राम का जन्म रावण वध करने के उद्देश्य से हुआ था। अगर राम राजा बन जाते तो देवी सीता का हरण और इसके बाद रावण वध का उद्देश्य अधूरा रह जाता। इसल‌िए देवताओं के अनुरोध पर देवी सरस्वती कैकेयी की दासी मंथरा की मत‌ि फेर देती हैं। मंथरा आकर कैकेयी का कान भरना शुरु कर देती है क‌ि राम अगर राजा बन गए तो कौशल्या का प्रभाव बढ़ जाएगा। इसल‌िए भरत को राजा बनवाने के ल‌िए तुम्हें हठ करना चाह‌िए।

मंथरा की जुबान से देवी सरस्वती बोल रही थी। इसल‌िए मंथरा की बातें कैकेयी की मत‌ि को फेरने के ल‌िए काफी था। कैकेयी ने खुद को कोप भवन में बंद कर ल‌िया। राजा दशरथ जब कैकेयी को मनाने पहुंचे तो कैकेयी ने भरत को राजा और राम को चौदह वर्ष का वनवास का वचन मांग ल‌िया। इस तरह भगवान राम को वनवास जाना पड़ा।

इसके अलावा जो कारण है उसका संबंध एक शाप से है। नारद मुन‌ि के मन में एक सुंदर कन्या को देखकर व‌िवाह की इच्छा जगी। नारद मुन‌ि नारायण के पास पहुंचे और हर‌ि जैसी छव‌ि मांगी। हर‌ि का मतलब व‌िष्‍णु भी होता है वानर भी। भगवान ने नारद को वानर मुख दे द‌िया इस कारण से नारद मुन‌ि का व‌िवाह नहीं हो पाया। क्रोध‌ित होकर नारद मुन‌ि ने भगवान व‌िष्‍णु को शाप दे द‌िया क‌ि आपको देवी लक्ष्मी का व‌ियोग सहना पड़ेगा और वानर की सहायता से ही आपका पुनः म‌िलन होगा। इस शाप के कारण राम सीता का व‌ियोग होना था इसल‌िए भी राम को वनवास जाना पड़ा।

पांचवां और सबसे बड़ा कारण स्वयं भगवान श्री राम हैं। तुलसी दास जी ने रामचर‌ित मानस में ल‌‌िखा है 'होइहि सोइ जो राम रचि राखा।' यानी भगवान राम की इच्छा के ब‌िना कुछ भी नहीं होता । भगवान राम स्वयं ही अपनी लीला को पूरा करने के ल‌िए वन जाना चाहते थे क्योंक‌ि वन में उन्हें हनुमान से म‌िलना था। सबरी का उद्धार करना था। धरती पर धर्म और मर्यादा की सीख देनी थी। इसल‌िए जन्म से पहले ही राम यह तय कर चुके थे क‌ि उन्हें वन जाना है और पृथ्वी से पाप का भार कम करना है।


                                                                                                               https://bit.ly/2nozMc7

Thursday, September 13, 2018

साईं बाबा से जुड़ी कुछ दिलचस्प कहानियां !



साईं बाबा के चमत्कारिक कहानियों के पीछे जीवन से जुड़ी कोई न कोई शिक्षा या मर्म छिपा है। साईं बाबा सशरीर भले ही अब नहीं हैं लेकिन सच्चे भक्तों को हमेशा यह एहसास होता है कि साईं बाबा उनके साथ हैं। उनकी जन्म तिथि के विषय में यह मान्यता है कि एक बार अपने एक भक्त के पूछे जाने पर उन्होंने अपनी जन्म तिथि 28 सितंबर 1836 बताई थी। इसलिए हर 28 सितम्बर को उनका जन्मदिन मनाया जाता है। इस मौके पर उनके जीवन से जुड़ी कुछ दिलचस्प कहानियों पर एक नजर।

भोजन में सभी प्राणियों का हिस्सा

शिरडी के लोग शुरू में साईं बाबा को पागल समझते थे लेकिन धीरे-धीरे उनकी शक्ति और गुणों को जानने के बाद भक्तों की संख्या बढ़ती गयी। साईं बाबा शिरडी के केवल पांच परिवारों से रोज दिन में दो बार भिक्षा मांगते थे।

वे टीन के बर्तन में तरल पदार्थ और कंधे पर टंगे हुए कपड़े की झोली में रोटी और ठोस पदार्थ इकट्ठा किया करते थे। सभी सामग्रियों को वे द्वारिका माई लाकर मिट्टी के बड़े बर्तन में मिलाकर रख देते थे। कुत्ते, बिल्लियाँ, चिड़िया निःसंकोच आकर उस खाने का कुछ अंश खा लेते थे, बची हुए भिक्षा को साईं बाबा भक्तों के साथ मिल बाँट कर खाते थे।

कुत्ते काअनादर  नहीं साईं का

एक बार साईं के एक भक्त ने साईं बाबा को भोजन के लिए घर पर बुलाया। निश्चित समय से पूर्व ही साईं बाबा कुत्ते का रूप धारण करके भक्त के घर पहुंच गये। साईं के भक्त ने अनजाने में चूल्हे में जलती हुई लकड़ी से कुत्ते को मारकर भगा दिया।

जब साईं बाबा नहीं आए तो उनका भक्त घर पर जा पहुंचा। साईं बाबा मुस्कुराये और कहा, "मैं तो तुम्हारे घर भोजन के लिए आया था लेकिन तुमने जलती हुई लकड़ी से मारकर मुझे भगा दिया।" साईं का भक्त अपनी भूल पर पछताने लगा और माफी मांगी। साईं बाबा ने स्नेह पूर्वक उसकी भूल को क्षमा कर दिया।

उदी की महिमा से संतान सुख

लक्ष्मी नामक एक स्त्री संतान सुख के लिए तरप रही थी। एक दिन साईं बाबा के पास अपनी विनती लेकर पहुंच गयी। साईं ने उसे उदी यानी भभूत दिया और कहा आधा तुम खा लेना और आधा अपने पति को दे देना।

लक्ष्मी ने ऐसा ही किया। निश्चित समय पर लक्ष्मी गर्भवती हुई। साईं के इस चमत्कार से वह साईं की भक्त बन गयी और जहां भी जाती साईं बाबा के गुणगाती। साईं के किसी विरोधी ने लक्ष्मी के गर्भ को नष्ट करने के लिए धोखे से गर्भ नष्ट करने की दवाई दे दी। इससे लक्ष्मी को पेट में दर्द एवं रक्तस्राव होने लगा। लक्ष्मी साईं के पास पहुंचकर साईं से विनती करने लगी।

साईं बाबा ने लक्ष्मी को उदी खाने के लिए दिया। उदी खाते ही लक्ष्मी का रक्तस्राव रूक गया और लक्ष्मी को सही समय पर संतान सुख प्राप्त हुआ।

Source - https://bit.ly/2MuaxzF

Friday, September 7, 2018

माँ दुर्गा नें जब नष्ट किया देवगण का अभिमान.

माँ दुर्गा नें जब नष्ट किया देवगण का अभिमान.



देवताओं और राक्षसों के बीच एक बार अत्यंत भीषण युद्ध हुआ। रक्त से सराबोर इस लड़ाई में अंततः देवगण विजयी हुए। जीत के मद में देव गण अभिमान और घमंड से भर गए। तथा स्वयं को सर्वोत्तम मानने लगे। देवताओं के इस मिथ्या अभिमान को नष्ट करने हेतु माँ दुर्गा नें तेजपुंज का रूप धारण किया और फिर देवताओं के समक्ष प्रकट हुईं। तेजपुंज विराट स्वरूप देख कर समस्त देवगण भयभीत हो उठे। और तब सभी देवताओं  के राजा इन्द्र नें वरुण देव को तेजपुंज का रहस्य जानने के लिए आगे भेजा।

तेजपुंज के सामने जा कर वरुण देव अपनी शक्तियों का बखान करने लगे। और तेजपुंज से उसका परिचय मांगने लगे। तब तेजपुंज नें वरुण देव के सामने एक अदना सा, छोटा सा तिनका रखा और उन्हे कहा की तुम वास्तव में इतने बलशाली हो जितना तुम खुद का बखान कर रहे हो तो इस तिनके को उड़ा कर दिखाओ।

वरुण देव नें एड़ी-चोटी का बल लगा दिया पर उनसे वह तिनका रत्ती भर भी हिल नहीं पाया और उनका घमंड चूर-चूर हो गया। अंत में वह वापस लौटे और उन्होने वह वास्तविकता इन्द्र देव से कही ।

इन्द्र देव नें फिर अग्नि देव को भेजा। तेजपुंज नें अग्नि देव से कहा की अपने बल और पराक्रम से इस तिनके को भस्म कर के बताइये।

अग्नि देव नें भी इस कार्य को पार लगाने में अपनी समस्त शक्ति झोंक दी। पर कुछ भी नहीं कर पाये। अंत में वह भी सिर झुकाये इन्द्र देव के पास लौट आए। इस तरह एक एक-कर के समस्त देवता तेजपुंज की चुनौती से परास्त हुए तब अंत में देव राज इन्द्र खुद मैदान में आए पर उन्हे भी सफलता प्राप्त ना हुई।

अंत में समस्त देव गण नें तेजपुंज से हार मान कर वहाँ उनकी आराधना करना शुरू कर दिया। तब तेजपुंज रूप में आई माँ दुर्गा में अपना वास्तविक रूप दिखाया और देवताओं को यह ज्ञान दिया की माँ शक्ति के आशीष से आप सब नें दानवों को परास्त किया है। तब देवताओं नें भी अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी और अपना मिथ्या अभिमान त्याग दिया।