महाभारत को शास्त्रों में पांचवां वेद कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। आज हम आपको बता रहे हैं महाभारत के उन प्रमुख पात्रों के बारे में जिनके बिना ये कथा अधूरी है।
1. भीष्म पितामह :-
भीष्म पितामह को महाभारत का सबसे प्रमुख पात्र कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि भीष्म ही महाभारत के एकमात्र ऐसे पात्र थे, जो प्रारंभ से अंत तक इसमें बने रहे। भीष्म के पिता राजा शांतनु व माता देवनदी गंगा थीं। भीष्म का मूल नाम देवव्रत था। राजा शांतनु जब सत्यवती पर मोहित हुए तब अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए देवव्रत ने सारी उम्र ब्रह्मचारी रह कर हस्तिनापुर की रक्षा करने की प्रतिज्ञा ली और सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म प्रसिद्ध हुआ।
पांडवों को बताया था अपनी मृत्यु का रहस्य
युद्ध में जब पांडव भीष्म को पराजित नहीं कर पाए तो उन्होंने जाकर भीष्म से ही इसका उपाय पूछा। तब भीष्म पितामह ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पहले एक स्त्री था, बाद में पुरुष बना। अर्जुन शिखंडी को आगे करके मुझ पर बाणों का प्रहार करे। वह जब मेरे सामने होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। इस मौके का फायदा उठाकर अर्जुन मुझे बाणों से घायल कर दे। पांडवों ने यही युक्ति अपनाई और भीष्म पितामह पर विजय प्राप्त की। युद्ध समाप्त होने के 58 दिन बाद जब सूर्यदेव उत्तरायण हो गए तब भीष्म ने अपनी इच्छा से प्राण त्यागे।
2. गुरु द्रोणाचार्य :-
कौरवों व पांडवों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा गुरु द्रोणाचार्य ने ही दी थी। द्रोणाचार्य महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। महाभारत के अनुसार एक बार महर्षि भरद्वाज जब सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में संग्रहित कर लिया। उसी में से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था।
जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांग लिए और उनके प्रयोग की विधि भी सीख ली। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था।
छल से हुआ था वध
कौरव-पांडवों के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों की ओर थे। जब पांडव किसी भी तरह उन्हें हरा नहीं पाए तो उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य के वध की योजना बनाई। उस योजना के अनुसार भीम ने अपनी ही सेना के अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला और द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि अश्वत्थामा मारा गया। अपने पुत्र की मृत्यु को सच मानकर गुरु द्रोण ने अपने अस्त्र नीचे रख दिए और अपने रथ के पिछले भाग में बैठकर ध्यान करने लगे। अवसर देखकर धृष्टद्युम्न ने तलवार से गुरु द्रोण का वध कर दिया।
3. कृपाचार्य :-
कृपाचार्य कौरव व पांडवों के कुलगुरु थे। इनके पिता का नाम शरद्वान था, वे महर्षि गौतम के पुत्र थे। महर्षि शरद्वान ने घोर तपस्या कर दिव्य अस्त्र प्राप्त किए और धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त की। यह देखकर देवराज इंद्र भी घबरा गए और उन्होंने शरद्वान की तपस्या तोडऩे के लिए जानपदी नाम की अप्सरा भेजी।
इस अप्सरा को देखकर महर्षि शरद्वान का वीर्यपात हो गया। उनका वीर्य सरकंड़ों पर गिरा, जिससे वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक बालक उत्पन्न हुआ। वही बालक कृपाचार्य बना और कन्या कृपी के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत के अनुसार युद्ध के बाद कृपाचार्य जीवित बच गए थे।
आज भी जीवित हैं कृपाचार्य
धर्म ग्रंथों में जिन 8 अमर महापुरुषों का वर्णन है, कृपाचार्य भी उनमें से एक हैं। इससे संबंधित एक श्लोक भी प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय- ये आठों अमर हैं।
4. महर्षि वेदव्यास :-
महर्षि वेदव्यास ने ही महाभारत की रचना की और वे स्वयं भी इसके एक पात्र हैं। इनका मूल नाम कृष्णद्वैपायन वेदव्यास था। इनके पिता महर्षि पाराशर तथा माता सत्यवती है। धर्म ग्रंथों में इन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी माना गया है। इनके शिष्य वैशम्पायन ने ही राजा जनमेजय की सभा में महाभारत कथा सुनाई थी। इन्हीं के वरदान से गांधारी को 100 पुत्र हुए थे।
जीवित कर दिया था युद्ध में मरे वीरों को
जब धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए वन में तपस्या कर रहे थे। तब एक दिन युधिष्ठिर सहित सभी पांडव व द्रौपदी उनसे मिलने वन में गए। संयोग से वहां महर्षि वेदव्यास भी आ गए। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती से प्रसन्न होकर महर्षि वेदव्यास ने उनसे वरदान मांगने को कहा। तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी ने भी कहा कि वह भी युद्ध में मृत हुए अपने भाई व पिता आदि को चाहती है।
महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास सभी को गंगा तट ले आए। रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं को बुलाने लगे। थोड़ी ही देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, राजा द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शकुनि, शिखंडी आदि वीर जल से बाहर निकल आए।
महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी को बहुत खुशी हुई। सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिता कर सभी के मन में संतोष हुआ। सुबह होते ही सभी मृत योद्धा पुन: गंगा जल में लीन हो गए।
5. श्रीकृष्ण :-
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार थे। इनकी माता का नाम देवकी व पिता का नाम वसुदेव था। समय-समय पर श्रीकृष्ण ने पांडवों की सहायता की। युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने ही सबसे बड़े रणनीतिकार की भूमिका निभाते हुए पांडवों को विजय दिलवाई। श्रीकृष्ण की योजना के अनुसार ही पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया था। उस यज्ञ में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध किया था।
श्रीकृष्ण ही शांति दूत बनकर कौरवों की सभा में गए थे और पांडवों की ओर से पांच गांव मांगे थे। युद्ध के प्रारंभ में जब अर्जुन कौरवों की सेना में अपने प्रियजनों को देखकर विचलित हुए, तब श्रीकृष्ण ने ही उन्हें गीता का उपदेश दिया था। अश्वत्थामा द्वारा छोड़ गए ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से जब उत्तरा (अभिमन्यु की पत्नी) का पुत्र मृत पैदा हुआ, तब श्रीकृष्ण न उसे अपने तप के बल से जीवित कर दिया था।
गांधारी ने दिया था श्रीकृष्ण को श्राप
युद्ध समाप्त होने के बाद जब धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती आदि कुरुकुल की स्त्रियां कुरुक्षेत्र आईं तो यहां अपने पुत्रों, पति व भाई आदि के शव देखकर उन्होंने बहुत विलाप किया। अपने पुत्रों के शव देखकर गांधारी थोड़ी देर के लिए अचेत (बेहोश) हो गई। होश आने पर गांधारी को बहुत क्रोध आया और वे श्रीकृष्ण से बोलीं कि पांडव व कौरव आपस की फूट के कारण ही नष्ट हुए हैं किंतु तुम चाहते तो इन्हें रोक सकते थे, लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया।
ऐसा कहकर गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि आज से 36 वर्ष बाद तुम भी अपने परिवार वालों का वध करोगे और अपने मंत्री, पुत्रों आदि के नाश हो जाने पर एक अनाथ की तरह मारे जाओगे। उस दिन तुम्हारे परिवार की स्त्रियां भी इसी प्रकार विलाप करेंगी। गांधारी के श्राप देने के बाद श्रीकृष्ण ने कहा कि वृष्णिवंशियों का नाश इसी प्रकार होगा, ये मैं पहले से जानता था क्योंकि मेरे अलावा कोई भी उनका संहार नहीं कर सकता। अत: आपके श्राप के अनुसार ही यदुवंशी आपसी कलह से नष्ट होंगे।
6-7. धृतराष्ट्र तथा पांडु :-
राजा शांतनु व सत्यवती के दो पुत्र थे- चित्रांगद व विचित्रवीर्य। राजा शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजगद्दी पर बैठे, लेकिन कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। तब भीष्म ने विचित्रवीर्य को राजा बनाया। भीष्म काशी से राजकुमारियों का हरण कर लाए और उनका विवाह विचित्रवीर्य से करवा दिया। किंतु क्षय रोग के कारण विचित्रवीर्य की भी मृत्यु हो गई।
तब महर्षि वेदव्यास के आशीर्वाद से अंबिका तथा अंबालिका को पुत्र उत्पन्न हुए। महर्षि वेदव्यास को देखकर अंबिका ने आंखें बंद कर ली थी, इसलिए धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे हुए तथा अंबालिका के गर्भ से पांडु हुए। अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र को राजा बनने के योग्य नहीं माना गया और पांडु को राजा बनाया गया।
8. गांधारी :-
गांधारी गांधारराज सुबल की पुत्री थी। जब भीष्म ने सुना कि गांधार देश की राजकुमारी सब लक्षणों से संपन्न है और उसने भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त किया है। तब भीष्म ने गांधारराज के पास अपना दूत भेजा। पहले तो सुबल ने अंधे के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने में बहुत सोच-विचार किया, लेकिन बाद में हां कह दिया। गांधारी को जब पता चला कि उसका होने वाला पति जन्म से अंधा है तो उसने भी आजीवन आंखों पर पट्टी बांधने का निर्णय लिया।
9-10. कुंती व माद्री :-
यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक पुत्री थी। इस कन्या को राजा शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुंतीभोज को गोद दे दिया था। कुंतीभोज ने इस कन्या का नाम कुंती रखा। विवाह योग्य होने पर राजा कुंतीभोज ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। स्वयंवर में कुंती ने राजा पांडु को वरमाला डालकर अपना पति चुना। कुंती के अलावा पांडु की एक और पत्नी थी, जिसका नाम माद्री था। यह मद्रदेश की राजकुमारी थी।
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