Shri Radhe Maa, also called Mamtamai Shri Radhe Guru Maa and Guru Maa by her devotees, is a Hindu spiritual teacher and guru from India. Shri Radhe Maa emphasises the need for surrender to God, humility, truthfulness, self-discipline and self-restrain. Radhe Maa urges devotees to engage with society through initiatives like donation of blood, clothes, food, books and medicines to orphanages, old age homes and sadhus
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Tuesday, January 31, 2017
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Monday, January 16, 2017
Sunday, January 15, 2017
Friday, January 13, 2017
मकर सक्रांति
🌺 मकर सक्रांति🌺
मकर संक्रांति पर इस साल दुर्लभ महायोग बन रहा है। सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश की प्रक्रिया को हिन्दू धर्मशास्त्र में संक्रान्ति कहा जाता है, इसी तरह सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने को मकर संक्रान्ति के रुप से पहचाना जाता है।
करीब 28 साल बाद बना दुर्लभ महायोग 12 राशियों धारको के लिए दस गुना फलदायक होगा। मकर संक्रान्ति यानी 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगें। पिता-पुत्र के मिलन का लाभ लगभग दो महीने तक रहेगा ।
सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के साथ ही मलमास समाप्त हो जाएगा। इसके साथ ही शुभ कार्यो की शुरुवात भी 14 जनवरी से ही हो जाएगी।हमेशा की तरह इसबार भी मकर संक्रान्ति 14 जनवरी को मनाई जाएगी।
क्या खास रहेगा इस बार मकर संक्रातिं पर !
🌅🌅🌅🌅🌅🌅🌅🌅🌅🌅🌅
ज्योतिषार्चायों के अनुसार इस बार मकर संक्रान्ति के पूरे दिन पुण्य काल रहेगा। इस दिन तीर्थ स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व माना जाता है। मकर संक्रांति के दिन साल का पहला पुष्य नक्षत्र है मतलब खरीदारी के लिए बेहद शुभ दिन।
मकर संक्रान्ति से पहले 13 जनवरी को सुबह 7.14 से रात 11.14 बजे तक साल का पहला शुभ पुष्य नक्षत्र पड रहा है।इसी तरह 14 जनवरी दोपहर 1.55 से सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करेंगे।
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इस दिन का योग 28 साल के बाद बन रहा है। मकर प्रवेश के साथ ही सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग व चंद्रमा कर्क राशि में और अश्लेषा नक्षत्र के अलावा प्रीति तथा मानस योग भी रहेगा।
इन नक्षत्रों का योग बेहद शुभ दुर्लभ और श्रेष्ठ है। इस योग से संक्रान्ति पर 12 राशियों के धारकों को दस गुना फलदायी हो सकता है।
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क्यों करते है मकर संक्राति पर दान !
वैसे तो हिन्दू धर्म के साथ साथ सभी धर्मो में हर रोज दान का विशेष महत्व होता है, लेकिन मकर संक्रान्ति पर दान का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन दान करने से पुण्य अन्य दिनों की तुलना में कई गुणा बढ जाता है।
दान किसे देना चाहिए इसका उल्लेख भी किया गया है। इस दिन गरीब को अन्नदान, जैसे तिल व गुड़ का दान देना चाहिए। इसमें तिल या तिल से लड्डू या तिल से बने खाद्य पदार्थों को दान देना चाहिए है।
धर्म शास्त्रों में विश्वास करने वाले मानते है कि कोई भी धर्म कार्य तभी फलदायी है जब पूर्ण आस्था व विश्वास के साथ दिया जाता हो । दान क्षमतानुसार दिया जाना चाहिए।
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हरे कृष्ण
मकर संक्रांति पर इस साल दुर्लभ महायोग बन रहा है। सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश की प्रक्रिया को हिन्दू धर्मशास्त्र में संक्रान्ति कहा जाता है, इसी तरह सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने को मकर संक्रान्ति के रुप से पहचाना जाता है।
करीब 28 साल बाद बना दुर्लभ महायोग 12 राशियों धारको के लिए दस गुना फलदायक होगा। मकर संक्रान्ति यानी 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगें। पिता-पुत्र के मिलन का लाभ लगभग दो महीने तक रहेगा ।
सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के साथ ही मलमास समाप्त हो जाएगा। इसके साथ ही शुभ कार्यो की शुरुवात भी 14 जनवरी से ही हो जाएगी।हमेशा की तरह इसबार भी मकर संक्रान्ति 14 जनवरी को मनाई जाएगी।
क्या खास रहेगा इस बार मकर संक्रातिं पर !
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ज्योतिषार्चायों के अनुसार इस बार मकर संक्रान्ति के पूरे दिन पुण्य काल रहेगा। इस दिन तीर्थ स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व माना जाता है। मकर संक्रांति के दिन साल का पहला पुष्य नक्षत्र है मतलब खरीदारी के लिए बेहद शुभ दिन।
मकर संक्रान्ति से पहले 13 जनवरी को सुबह 7.14 से रात 11.14 बजे तक साल का पहला शुभ पुष्य नक्षत्र पड रहा है।इसी तरह 14 जनवरी दोपहर 1.55 से सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करेंगे।
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इस दिन का योग 28 साल के बाद बन रहा है। मकर प्रवेश के साथ ही सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग व चंद्रमा कर्क राशि में और अश्लेषा नक्षत्र के अलावा प्रीति तथा मानस योग भी रहेगा।
इन नक्षत्रों का योग बेहद शुभ दुर्लभ और श्रेष्ठ है। इस योग से संक्रान्ति पर 12 राशियों के धारकों को दस गुना फलदायी हो सकता है।
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क्यों करते है मकर संक्राति पर दान !
वैसे तो हिन्दू धर्म के साथ साथ सभी धर्मो में हर रोज दान का विशेष महत्व होता है, लेकिन मकर संक्रान्ति पर दान का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन दान करने से पुण्य अन्य दिनों की तुलना में कई गुणा बढ जाता है।
दान किसे देना चाहिए इसका उल्लेख भी किया गया है। इस दिन गरीब को अन्नदान, जैसे तिल व गुड़ का दान देना चाहिए। इसमें तिल या तिल से लड्डू या तिल से बने खाद्य पदार्थों को दान देना चाहिए है।
धर्म शास्त्रों में विश्वास करने वाले मानते है कि कोई भी धर्म कार्य तभी फलदायी है जब पूर्ण आस्था व विश्वास के साथ दिया जाता हो । दान क्षमतानुसार दिया जाना चाहिए।
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हरे कृष्ण
Thursday, January 12, 2017
Wednesday, January 11, 2017
Tuesday, January 10, 2017
Monday, January 9, 2017
गीता (77) -||तामादिशक्तिम् शिरसा नमामि||
गीता(77)
||तामादिशक्तिम् शिरसा नमामि||
भगवान श्री कृष्ण योग-प्रकरण समाप्त कर चुके हैं। किन्तु अर्जुन को अभी पूरा परितोष नहीं मिला है। वह श्री कृष्ण से कहता है:-
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
"हे मधुसूदन! तुमने साम्य द्वारा जो यह योग बताया है; मन की चञ्चलता के कारण मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ। क्योंकि हे कृष्ण! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है; इसलिए इसके निग्रह को मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।" (अध्याय 6, श्लोक 33 एवं 34)
अर्जुन की शंका सत्य अनुभव पर आधारित है। अब तक, जो कुछ भी श्री कृष्ण ने समझाया है, उसके अनुसार– "परमज्ञान, परमसाम्य और चरम-ऐक्य एक ही अवस्था को व्यक्त करनेवाले शब्द हैं। यह अवस्था ही योग है। योग का तात्पर्य, परमात्मा के साथ अपने वास्तविक नित्य-ऐक्य को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए, परमात्मा में स्थित रहने से है। योग के लिए, परमज्ञान को प्रत्यक्ष उपलब्ध होना अनिवार्य है। परमज्ञान को उपलब्ध होने के लिए, उपरति की सिद्धि अनिवार्य है। उपरति की सिद्धि के लिए, मन को निरुद्ध कर, उसे आत्मा में नियुक्त करना अनिवार्य है। आत्मा में निरुद्ध मन को नियुक्त करने के लिए मन को वश में करना अनिवार्य है।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री कृष्ण द्वारा उपदेशित योग की प्राप्ति, मन को पूरी तरह वश में करने से ही सम्भव है। किन्तु मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि मन बहुत बलवान एवं अत्यन्त चञ्चल प्रकृति वाला है। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग से, परमात्मा के साथ योग की प्राप्ति लगभग असम्भव है।
उपर्युक्त शंका को व्यक्त करते हुए, अर्जुन कह रहा है कि मन की चञ्चल प्रकृति तथा मन के बल को देखते हुए, साम्य द्वारा प्राप्त होने वाले योग की नित्य-स्थिति, उसे सम्भव नहीं दिखायी दे रही है। अर्जुन अनुभव-सिद्ध बात कह रहा है। मन बड़ा चञ्चल, प्रचण्ड बलवान और अत्यन्त हठी होता है। मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन है। अतः साम्य द्वारा योग को प्राप्त होना; असंभव-प्राय एवं नितान्त अव्यवहारिक प्रतीत होता है।
मन की चञ्चलता लगभग अपराजेय जैसी है। अर्जुन सोचता है कि अगर किसी प्रकार उपर्युक्त योग उपलब्ध हो भी जाय तो, उसकी संभावना तात्कालिक एवं क्षणिक ही है। उस योग की नित्य-स्थिति सम्भव नहीं है; क्योंकि मन के चञ्चल होते ही, वह योगावस्था भंग हो जायेगी। अर्जुन यह भी कहना चाहता है कि यदि यह मान भी लिया जाय कि योग-प्राप्त हो जाने पर, मन पुनः चञ्चलता को नहीं प्राप्त होता; तब भी इस योग को सरल एवं व्यवहार्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि मन दुर्जेय है और उसे जीते बिना तो क्षणिक योग भी संभव नहीं है। आशय यह है कि योग-प्राप्ति के लिए श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग; सिद्धान्ततः तो ठीक है, परन्तु व्यवहारिक रूप से अत्यंत कठिन है। अर्जुन को आशा थी कि श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग से योग की प्राप्ति सरल होगी; क्योंकि योग-मार्ग की शिक्षा प्रारम्भ करते समय तथा बार-बार श्री कृष्ण ने ऐसा ही कहा था। किन्तु यह मार्ग तो बहुत ही कठिन प्रतीत हो रहा है।
वास्तव में योग-मार्ग की शिक्षा प्रारम्भ करते समय तथा बाद में भी कई बार, श्री कृष्ण ने योग-मार्ग को; अन्य श्रेय-मार्गों जैसे ज्ञान-मार्ग आदि की तुलना में सरल बताया था। उनका कथन आपेक्षिक सरलता की दृष्टि से था। अर्जुन उस तुलनात्मक एवं आपेक्षिक सरलता पर ध्यान नहीं दे रहा है। वास्तविकता यह है कि योग की उच्चतम अवस्था को उपलब्ध होना अत्यन्त कठिन है; किन्तु श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट, साम्य की सहायता से योग की प्राप्ति, अन्य मार्गों की तुलना में सरलतम है। अर्जुन की शंका को भली-भाँति भाँप कर, उसका निराकरण करते हुए, श्री कृष्ण कहते हैं:-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
"हे महाबाहो! निस्सन्देह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुन्तीपुत्र! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में हो जाता है। मेरा मत है कि जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए योग दुष्प्राप्य है; किन्तु वश में किये हुए मन वाले पुरुषों में से, युक्तिपूर्वक प्रयत्न करने वाले के लिए योग की प्राप्ति सहज है।" (अध्याय 6, श्लोक 35 एवं 36)
अर्जुन की शंका का निवारण करने के लिए, श्री कृष्ण द्वारा प्रस्तुत समाधान अति संक्षिप्त होते हुए भी स्पष्ट एवं पर्याप्त है। इस उक्ति को ठीक से समझे बिना, साम्य द्वारा योग की प्राप्ति के प्रति मान्य दुराग्रहों से मुक्त हो पाना मुश्किल है।
कुछ विद्वानों ने इस उक्ति को, अर्जुन के मन्तव्य का अनुमोदन मान लिया है, जो सही नहीं है। अर्जुन सर्वमान्य अनुभवों के आधार पर, साम्य द्वारा योग की प्राप्ति को अत्यन्त कठिन और अव्यवहारिक ठहरा रहा है; जबकि श्री कृष्ण का आशय ठीक उसके विपरीत है। इस उक्ति को अर्जुन के मन्तव्य की स्वीकृति समझ लेना, श्री कृष्ण की शिक्षा को स्व-विरोधी मान लेने जैसा है। इस उक्ति का ऐसा असंगत तात्पर्य निकाल लेना, अनुचित है। श्री कृष्ण अर्जुन द्वारा प्रस्तुत सर्वमान्य अनुभूत सत्य को, स्वीकार अवश्य कर रहे है; किन्तु उसके आधार पर अर्जुन द्वारा निकाले गए निष्कर्ष को, पूरी तरह अस्वीकार कर रहे हैं।
श्री कृष्ण स्वीकार करते हैं कि निस्सन्देह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है, किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से यह वश में हो जाता है। वे अर्जुन के कथन से सहमत नहीं हैं कि मन को वश में करना अत्यन्त कठिन अथवा असम्भव जैसा है। उनकी उक्ति का आशय यह है कि मन को वश में किया जा सकता है, किन्तु बल पूर्वक नहीं। मन को युक्तिपूर्वक वश में किया जा सकता है और वह युक्ति है– अभ्यास एवं वैराग्य। यहाँ विचारणीय है कि वैराग्य के बिना तो श्रेय-कामना का जन्म ही नहीं होता। अतः श्रेयकामियों द्वारा मन को वश में करने के लिए, केवल अभ्यास की जरूरत है। वास्तव में चञ्चलता मन की प्रकृति नहीं, बल्कि अवस्था है। चञ्चलता अगर मन की प्रकृति होती तो मन की शान्ति और योग की प्राप्ति असम्भव होती, क्योंकि प्रकृति को जीता नहीं जा सकता। तब अर्जुन का निष्कर्ष भी अकाट्य होता। परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। यह सर्व विदित सत्य है कि मन की विभिन्न अवस्थाएँ अनुभूत होती हैं– कभी अति चञ्चल, कभी कम चञ्चल, कभी शान्त और कभी अशान्त। ये अनुभूतियाँ ही यथेष्ट प्रमाण हैं कि चञ्चलता मन की प्रकृति नहीं है। मन में स्थित कामना, आसक्ति एवं राग-द्वेष आदि विकृतियों के कारण ही; मन हमेशा चञ्चल अवस्था को प्राप्त रहता है। सामान्य मनुष्य प्रायः मन की चञ्चल अवस्था का ही अनुभव करने के कारण, चञ्चलता को ही मन की प्रकृति समझ लेता है और यही भूल अर्जुन भी कर रहा है। मन की प्रकृति तो शान्तिपूर्वक मनन करने की है। स्पष्ट है कि चञ्चलता मन की प्राकृत अवस्था न होकर उसकी विकृत अवस्था है। मन को विकृतियों से मुक्त कर देने पर, वह अपनी शान्त प्राकृत अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
मन की विकृतियों को दूर करने में कठिनाई यह है कि इसके लिए मन की ही सहायता लेनी पड़ती है। समझना होता है कि मन मनुष्य का स्वामी नहीं है। शरीर की भाँति मन भी, मनुष्य का सूक्ष्म यंत्र है। यह आत्मा और बुद्धि का सेवक है। मन की स्वतन्त्र स्थिति नहीं है। मन की स्थिति आत्मा और बुद्धि के अधीन है। बुद्धि की ढ़ीली पकड़ के कारण ही मन स्वामी बना रहता है। मन को वशीभूत करने में बाधा यही है कि मनुष्य उसे वश में करना ही नहीं चाहता। मनुष्य मन के चञ्चल खेलों में रस लेता है तथा ऐसे रसानुभूति से वञ्चित नहीं होना चाहता। मनुष्य द्वारा ऐसे रसानुभूति के गहरे अभ्यास के कारण, मन को भी चञ्चलता की आदत पड़ गयी रहती है। उस आदत की विकृति से छुटकारा पाने के लिए, विपरीत दिशा में संकल्प पूर्वक अभ्यास जरूरी है। इसके लिए मन को कामना-आसक्ति आदि से मुक्त रखकर, उसे वश में करना होगा। श्री भगवान कहते हैं कि अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है। इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह स्वाभाविक है। मन को विकृतियों से मुक्त रखने पर; यह स्वतः अपनी शान्त प्रकृति को उपलब्ध होकर, वश में हो जाएगा।
भगवान श्री कृष्ण के प्रारम्भिक उपदेश में ही, आत्मा की नित्यता और संसार की नश्वरता को समझाया गया है; जो वैराग्य-साधक ज्ञान है। तत्पश्चात् उनके द्वारा योग-मार्ग के साधना-प्रकरण में; कामना, आसक्ति आदि विकृतियों से एवं कर्तृत्वभाव से; मुक्त रहने की युक्तियों को सविस्तार समझाया गया है तथा ध्यान-प्रकरण में अभ्यास के तत्व को भी स्पष्ट कर दिया गया है। इस प्रकार, श्री कृष्ण द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने वाले श्रेय-साधक के लिए, मन को वश में करना कठिन नहीं है।
श्री भगवान स्पष्ट कह रहे हैं कि जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए योग दुष्प्राप्य है। आशय यह है कि मन को वश में किये बिना, किसी भी मार्ग से योग की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परमात्मा को प्रत्यक्ष करने के लिए, मन को वश में करना ही होगा। मन को वश में किये बिना, किसी भी मार्ग से श्रेय को उपलब्ध होना संभव नहीं है। यही श्री कृष्ण का मत है। आशय यह है कि मन को अपने अधीन करने में जो भी कठिनाई है, वह सभी श्रेय-मार्गों में है। इस कठिनाई को केवल श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग की कठिनाई समझना नितान्त गलत है। किसी मार्ग से भी श्रेय-प्राप्ति के लिए, इस कठिनाई से जूझना ही होगा। अर्जुन अज्ञानवश प्रत्येक श्रेय-मार्ग की इस कठिनाई को "साम्य द्वारा योग-प्राप्ति" का विशिष्ट दोष समझ रहा है।
अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि स्वाधीन मन वाले साधकों में से, उन साधकों के लिए योग की प्राप्ति सहज है, जो युक्तिपूर्वक साधना करते हैं। अर्थात् मन को स्वाधीन कर चुके साधकों के लिए, ध्यान-साधना के रूप में जिस युक्तिपूर्वक साधना का उपदेश श्री भगवान द्वारा दिया गया है, वह अन्य श्रेय-मार्गों की तुलना में सरल है। उक्ति का आशय यह है कि अर्जुन को अब तक जिस योग-मार्ग रूपी युक्तियों का उपदेश दिया गया है; वह मन को वश में करने के लिए तथा मन के वश में हो जाने पर परमात्मा के साथ योग की प्राप्ति के लिए, सरलतम मार्ग है।
मन को बलपूर्वक वश में करना निश्चय ही अत्यन्त कठिन है, किन्तु मन को वश में किये बिना परमात्मा के साथ योग की प्राप्ति ही असम्भव है। अतः मन को वश में करने का उपाय करना ही होगा तथा मन को वश में करने की कठिनाई से जूझना ही होगा। अभी तक की शिक्षा में मन को सरलता पूर्वक वश में करने की युक्ति सविस्तार समझायी जा चुकी है तथा मन के वश में हो जाने पर ध्यान द्वारा सरलता के साथ उपरति को उपलब्ध होकर परमात्मा के साथ योग को प्राप्त होने का मार्ग समझाया जा चुका है। यही साम्य द्वारा योग की प्राप्ति का मार्ग है, जो सरलतम श्रेय-मार्ग है।
----------क्रमशः गीता(78)।
||तामादिशक्तिम् शिरसा नमामि||
भगवान श्री कृष्ण योग-प्रकरण समाप्त कर चुके हैं। किन्तु अर्जुन को अभी पूरा परितोष नहीं मिला है। वह श्री कृष्ण से कहता है:-
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
"हे मधुसूदन! तुमने साम्य द्वारा जो यह योग बताया है; मन की चञ्चलता के कारण मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ। क्योंकि हे कृष्ण! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है; इसलिए इसके निग्रह को मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।" (अध्याय 6, श्लोक 33 एवं 34)
अर्जुन की शंका सत्य अनुभव पर आधारित है। अब तक, जो कुछ भी श्री कृष्ण ने समझाया है, उसके अनुसार– "परमज्ञान, परमसाम्य और चरम-ऐक्य एक ही अवस्था को व्यक्त करनेवाले शब्द हैं। यह अवस्था ही योग है। योग का तात्पर्य, परमात्मा के साथ अपने वास्तविक नित्य-ऐक्य को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए, परमात्मा में स्थित रहने से है। योग के लिए, परमज्ञान को प्रत्यक्ष उपलब्ध होना अनिवार्य है। परमज्ञान को उपलब्ध होने के लिए, उपरति की सिद्धि अनिवार्य है। उपरति की सिद्धि के लिए, मन को निरुद्ध कर, उसे आत्मा में नियुक्त करना अनिवार्य है। आत्मा में निरुद्ध मन को नियुक्त करने के लिए मन को वश में करना अनिवार्य है।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री कृष्ण द्वारा उपदेशित योग की प्राप्ति, मन को पूरी तरह वश में करने से ही सम्भव है। किन्तु मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि मन बहुत बलवान एवं अत्यन्त चञ्चल प्रकृति वाला है। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग से, परमात्मा के साथ योग की प्राप्ति लगभग असम्भव है।
उपर्युक्त शंका को व्यक्त करते हुए, अर्जुन कह रहा है कि मन की चञ्चल प्रकृति तथा मन के बल को देखते हुए, साम्य द्वारा प्राप्त होने वाले योग की नित्य-स्थिति, उसे सम्भव नहीं दिखायी दे रही है। अर्जुन अनुभव-सिद्ध बात कह रहा है। मन बड़ा चञ्चल, प्रचण्ड बलवान और अत्यन्त हठी होता है। मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन है। अतः साम्य द्वारा योग को प्राप्त होना; असंभव-प्राय एवं नितान्त अव्यवहारिक प्रतीत होता है।
मन की चञ्चलता लगभग अपराजेय जैसी है। अर्जुन सोचता है कि अगर किसी प्रकार उपर्युक्त योग उपलब्ध हो भी जाय तो, उसकी संभावना तात्कालिक एवं क्षणिक ही है। उस योग की नित्य-स्थिति सम्भव नहीं है; क्योंकि मन के चञ्चल होते ही, वह योगावस्था भंग हो जायेगी। अर्जुन यह भी कहना चाहता है कि यदि यह मान भी लिया जाय कि योग-प्राप्त हो जाने पर, मन पुनः चञ्चलता को नहीं प्राप्त होता; तब भी इस योग को सरल एवं व्यवहार्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि मन दुर्जेय है और उसे जीते बिना तो क्षणिक योग भी संभव नहीं है। आशय यह है कि योग-प्राप्ति के लिए श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग; सिद्धान्ततः तो ठीक है, परन्तु व्यवहारिक रूप से अत्यंत कठिन है। अर्जुन को आशा थी कि श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग से योग की प्राप्ति सरल होगी; क्योंकि योग-मार्ग की शिक्षा प्रारम्भ करते समय तथा बार-बार श्री कृष्ण ने ऐसा ही कहा था। किन्तु यह मार्ग तो बहुत ही कठिन प्रतीत हो रहा है।
वास्तव में योग-मार्ग की शिक्षा प्रारम्भ करते समय तथा बाद में भी कई बार, श्री कृष्ण ने योग-मार्ग को; अन्य श्रेय-मार्गों जैसे ज्ञान-मार्ग आदि की तुलना में सरल बताया था। उनका कथन आपेक्षिक सरलता की दृष्टि से था। अर्जुन उस तुलनात्मक एवं आपेक्षिक सरलता पर ध्यान नहीं दे रहा है। वास्तविकता यह है कि योग की उच्चतम अवस्था को उपलब्ध होना अत्यन्त कठिन है; किन्तु श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट, साम्य की सहायता से योग की प्राप्ति, अन्य मार्गों की तुलना में सरलतम है। अर्जुन की शंका को भली-भाँति भाँप कर, उसका निराकरण करते हुए, श्री कृष्ण कहते हैं:-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
"हे महाबाहो! निस्सन्देह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुन्तीपुत्र! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में हो जाता है। मेरा मत है कि जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए योग दुष्प्राप्य है; किन्तु वश में किये हुए मन वाले पुरुषों में से, युक्तिपूर्वक प्रयत्न करने वाले के लिए योग की प्राप्ति सहज है।" (अध्याय 6, श्लोक 35 एवं 36)
अर्जुन की शंका का निवारण करने के लिए, श्री कृष्ण द्वारा प्रस्तुत समाधान अति संक्षिप्त होते हुए भी स्पष्ट एवं पर्याप्त है। इस उक्ति को ठीक से समझे बिना, साम्य द्वारा योग की प्राप्ति के प्रति मान्य दुराग्रहों से मुक्त हो पाना मुश्किल है।
कुछ विद्वानों ने इस उक्ति को, अर्जुन के मन्तव्य का अनुमोदन मान लिया है, जो सही नहीं है। अर्जुन सर्वमान्य अनुभवों के आधार पर, साम्य द्वारा योग की प्राप्ति को अत्यन्त कठिन और अव्यवहारिक ठहरा रहा है; जबकि श्री कृष्ण का आशय ठीक उसके विपरीत है। इस उक्ति को अर्जुन के मन्तव्य की स्वीकृति समझ लेना, श्री कृष्ण की शिक्षा को स्व-विरोधी मान लेने जैसा है। इस उक्ति का ऐसा असंगत तात्पर्य निकाल लेना, अनुचित है। श्री कृष्ण अर्जुन द्वारा प्रस्तुत सर्वमान्य अनुभूत सत्य को, स्वीकार अवश्य कर रहे है; किन्तु उसके आधार पर अर्जुन द्वारा निकाले गए निष्कर्ष को, पूरी तरह अस्वीकार कर रहे हैं।
श्री कृष्ण स्वीकार करते हैं कि निस्सन्देह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है, किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से यह वश में हो जाता है। वे अर्जुन के कथन से सहमत नहीं हैं कि मन को वश में करना अत्यन्त कठिन अथवा असम्भव जैसा है। उनकी उक्ति का आशय यह है कि मन को वश में किया जा सकता है, किन्तु बल पूर्वक नहीं। मन को युक्तिपूर्वक वश में किया जा सकता है और वह युक्ति है– अभ्यास एवं वैराग्य। यहाँ विचारणीय है कि वैराग्य के बिना तो श्रेय-कामना का जन्म ही नहीं होता। अतः श्रेयकामियों द्वारा मन को वश में करने के लिए, केवल अभ्यास की जरूरत है। वास्तव में चञ्चलता मन की प्रकृति नहीं, बल्कि अवस्था है। चञ्चलता अगर मन की प्रकृति होती तो मन की शान्ति और योग की प्राप्ति असम्भव होती, क्योंकि प्रकृति को जीता नहीं जा सकता। तब अर्जुन का निष्कर्ष भी अकाट्य होता। परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। यह सर्व विदित सत्य है कि मन की विभिन्न अवस्थाएँ अनुभूत होती हैं– कभी अति चञ्चल, कभी कम चञ्चल, कभी शान्त और कभी अशान्त। ये अनुभूतियाँ ही यथेष्ट प्रमाण हैं कि चञ्चलता मन की प्रकृति नहीं है। मन में स्थित कामना, आसक्ति एवं राग-द्वेष आदि विकृतियों के कारण ही; मन हमेशा चञ्चल अवस्था को प्राप्त रहता है। सामान्य मनुष्य प्रायः मन की चञ्चल अवस्था का ही अनुभव करने के कारण, चञ्चलता को ही मन की प्रकृति समझ लेता है और यही भूल अर्जुन भी कर रहा है। मन की प्रकृति तो शान्तिपूर्वक मनन करने की है। स्पष्ट है कि चञ्चलता मन की प्राकृत अवस्था न होकर उसकी विकृत अवस्था है। मन को विकृतियों से मुक्त कर देने पर, वह अपनी शान्त प्राकृत अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
मन की विकृतियों को दूर करने में कठिनाई यह है कि इसके लिए मन की ही सहायता लेनी पड़ती है। समझना होता है कि मन मनुष्य का स्वामी नहीं है। शरीर की भाँति मन भी, मनुष्य का सूक्ष्म यंत्र है। यह आत्मा और बुद्धि का सेवक है। मन की स्वतन्त्र स्थिति नहीं है। मन की स्थिति आत्मा और बुद्धि के अधीन है। बुद्धि की ढ़ीली पकड़ के कारण ही मन स्वामी बना रहता है। मन को वशीभूत करने में बाधा यही है कि मनुष्य उसे वश में करना ही नहीं चाहता। मनुष्य मन के चञ्चल खेलों में रस लेता है तथा ऐसे रसानुभूति से वञ्चित नहीं होना चाहता। मनुष्य द्वारा ऐसे रसानुभूति के गहरे अभ्यास के कारण, मन को भी चञ्चलता की आदत पड़ गयी रहती है। उस आदत की विकृति से छुटकारा पाने के लिए, विपरीत दिशा में संकल्प पूर्वक अभ्यास जरूरी है। इसके लिए मन को कामना-आसक्ति आदि से मुक्त रखकर, उसे वश में करना होगा। श्री भगवान कहते हैं कि अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है। इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह स्वाभाविक है। मन को विकृतियों से मुक्त रखने पर; यह स्वतः अपनी शान्त प्रकृति को उपलब्ध होकर, वश में हो जाएगा।
भगवान श्री कृष्ण के प्रारम्भिक उपदेश में ही, आत्मा की नित्यता और संसार की नश्वरता को समझाया गया है; जो वैराग्य-साधक ज्ञान है। तत्पश्चात् उनके द्वारा योग-मार्ग के साधना-प्रकरण में; कामना, आसक्ति आदि विकृतियों से एवं कर्तृत्वभाव से; मुक्त रहने की युक्तियों को सविस्तार समझाया गया है तथा ध्यान-प्रकरण में अभ्यास के तत्व को भी स्पष्ट कर दिया गया है। इस प्रकार, श्री कृष्ण द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने वाले श्रेय-साधक के लिए, मन को वश में करना कठिन नहीं है।
श्री भगवान स्पष्ट कह रहे हैं कि जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए योग दुष्प्राप्य है। आशय यह है कि मन को वश में किये बिना, किसी भी मार्ग से योग की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परमात्मा को प्रत्यक्ष करने के लिए, मन को वश में करना ही होगा। मन को वश में किये बिना, किसी भी मार्ग से श्रेय को उपलब्ध होना संभव नहीं है। यही श्री कृष्ण का मत है। आशय यह है कि मन को अपने अधीन करने में जो भी कठिनाई है, वह सभी श्रेय-मार्गों में है। इस कठिनाई को केवल श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग-मार्ग की कठिनाई समझना नितान्त गलत है। किसी मार्ग से भी श्रेय-प्राप्ति के लिए, इस कठिनाई से जूझना ही होगा। अर्जुन अज्ञानवश प्रत्येक श्रेय-मार्ग की इस कठिनाई को "साम्य द्वारा योग-प्राप्ति" का विशिष्ट दोष समझ रहा है।
अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि स्वाधीन मन वाले साधकों में से, उन साधकों के लिए योग की प्राप्ति सहज है, जो युक्तिपूर्वक साधना करते हैं। अर्थात् मन को स्वाधीन कर चुके साधकों के लिए, ध्यान-साधना के रूप में जिस युक्तिपूर्वक साधना का उपदेश श्री भगवान द्वारा दिया गया है, वह अन्य श्रेय-मार्गों की तुलना में सरल है। उक्ति का आशय यह है कि अर्जुन को अब तक जिस योग-मार्ग रूपी युक्तियों का उपदेश दिया गया है; वह मन को वश में करने के लिए तथा मन के वश में हो जाने पर परमात्मा के साथ योग की प्राप्ति के लिए, सरलतम मार्ग है।
मन को बलपूर्वक वश में करना निश्चय ही अत्यन्त कठिन है, किन्तु मन को वश में किये बिना परमात्मा के साथ योग की प्राप्ति ही असम्भव है। अतः मन को वश में करने का उपाय करना ही होगा तथा मन को वश में करने की कठिनाई से जूझना ही होगा। अभी तक की शिक्षा में मन को सरलता पूर्वक वश में करने की युक्ति सविस्तार समझायी जा चुकी है तथा मन के वश में हो जाने पर ध्यान द्वारा सरलता के साथ उपरति को उपलब्ध होकर परमात्मा के साथ योग को प्राप्त होने का मार्ग समझाया जा चुका है। यही साम्य द्वारा योग की प्राप्ति का मार्ग है, जो सरलतम श्रेय-मार्ग है।
----------क्रमशः गीता(78)।
Sunday, January 8, 2017
श्रीमद भगवदगीता - अध्याय 9
श्रीमद भगवदगीता
अध्याय 9
(मोह से ग्रसित और मोह से मुक्त स्वभाव वालों के लक्षण)
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ (११)
भावार्थ : मूर्ख मनुष्य मुझे अपने ही समान निकृष्ट शरीर आधार (भौतिक पदार्थ से निर्मित जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने) वाला समझते हैं इसलिये वह सभी जीवात्माओं का परम-ईश्वर वाले मेरे स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। (११)
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ (१२)
भावार्थ : ऎसे मनुष्य कभी न पूर्ण होने वाली आशा में, कभी न पूर्ण होने वाले कर्मो में और कभी न प्राप्त होने वाले ज्ञान में विशेष रूप से मोहग्रस्त हुए मेरी मोहने वाली भौतिक प्रकृति की ओर आकृष्ट होकर निश्चित रूप से राक्षसी वृत्ति और आसुरी स्वभाव धारण किए रहते हैं। (१२)
नारायण हरी
अध्याय 9
(मोह से ग्रसित और मोह से मुक्त स्वभाव वालों के लक्षण)
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ (११)
भावार्थ : मूर्ख मनुष्य मुझे अपने ही समान निकृष्ट शरीर आधार (भौतिक पदार्थ से निर्मित जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने) वाला समझते हैं इसलिये वह सभी जीवात्माओं का परम-ईश्वर वाले मेरे स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। (११)
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ (१२)
भावार्थ : ऎसे मनुष्य कभी न पूर्ण होने वाली आशा में, कभी न पूर्ण होने वाले कर्मो में और कभी न प्राप्त होने वाले ज्ञान में विशेष रूप से मोहग्रस्त हुए मेरी मोहने वाली भौतिक प्रकृति की ओर आकृष्ट होकर निश्चित रूप से राक्षसी वृत्ति और आसुरी स्वभाव धारण किए रहते हैं। (१२)
नारायण हरी
Friday, January 6, 2017
गुरु की मेहरबानी
-:- गुरु की मेहरबानी -:-
"""""""""""""""""""""""""
--मैने एक आदमी से पूछा कि गुरू कौन है! वो सेब खा रहा था,उसने एक सेब मेरे हाथ मैं देकर मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हें बता सकते हो ?
--सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं!
उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा
इस बीज में कितने सेब हैं यह भी सोचकर बताओ?
मैं सोचने लगा एक बीज से एक पेड़, एक पेड़ से अनेक सेव अनेक सेबो में फिर तीन तीन बीज हर बीज से फिर एक एक पेड़ और यह अनवरत क्रम!
वो मुस्कुराते हुए बोले : बस इसी तरह परमात्मा की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है! बस हमें उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है!
-:-गुरू एक तेज हे जिनके आते ही, सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हैं!
-:-गुरू वो मृदंग है जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते है!
-:-गुरू वो ज्ञान हैं जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हैं!
-:-गुरू वो दीक्षा है जो सही मायने में मिलती है तो भवसागर पार हो जाते है!
-:-गुरू वो नदी है जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हैं!
-:-गुरू वो सत चित आनंद है जो हमें हमारी पहचान देता है!
-:-गुरू वो बासुरी है जिसके बजते ही अंग अंग थीरकने लगता है!
-:-गुरू वो अमृत है जिसे पीकर कोई कभी प्यासा नही रहता है!
-:-गुरू वो मृदँग है जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती है!
-:-गुरू वो कृपा ही है जो सिर्फ कुछ सद शिष्यों को विशेष रूप मे मिलती है और कुछ पाकर भी
समझ नही पाते हैं!
-:-गुरू वो खजाना है जो अनमोल है!
-:-गुरू वो समाधि है जो चिरकाल तक रहती हैं!
-:-गुरू वो प्रसाद है जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ भी मांगने की ज़रूरत नही पड़ती हैं ||
जय गुरुदेव👏
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--मैने एक आदमी से पूछा कि गुरू कौन है! वो सेब खा रहा था,उसने एक सेब मेरे हाथ मैं देकर मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हें बता सकते हो ?
--सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं!
उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा
इस बीज में कितने सेब हैं यह भी सोचकर बताओ?
मैं सोचने लगा एक बीज से एक पेड़, एक पेड़ से अनेक सेव अनेक सेबो में फिर तीन तीन बीज हर बीज से फिर एक एक पेड़ और यह अनवरत क्रम!
वो मुस्कुराते हुए बोले : बस इसी तरह परमात्मा की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है! बस हमें उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है!
-:-गुरू एक तेज हे जिनके आते ही, सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हैं!
-:-गुरू वो मृदंग है जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते है!
-:-गुरू वो ज्ञान हैं जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हैं!
-:-गुरू वो दीक्षा है जो सही मायने में मिलती है तो भवसागर पार हो जाते है!
-:-गुरू वो नदी है जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हैं!
-:-गुरू वो सत चित आनंद है जो हमें हमारी पहचान देता है!
-:-गुरू वो बासुरी है जिसके बजते ही अंग अंग थीरकने लगता है!
-:-गुरू वो अमृत है जिसे पीकर कोई कभी प्यासा नही रहता है!
-:-गुरू वो मृदँग है जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती है!
-:-गुरू वो कृपा ही है जो सिर्फ कुछ सद शिष्यों को विशेष रूप मे मिलती है और कुछ पाकर भी
समझ नही पाते हैं!
-:-गुरू वो खजाना है जो अनमोल है!
-:-गुरू वो समाधि है जो चिरकाल तक रहती हैं!
-:-गुरू वो प्रसाद है जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ भी मांगने की ज़रूरत नही पड़ती हैं ||
जय गुरुदेव👏